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________________ 業卐業卐業卐業業卐業業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द ● अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित प्रधान नहीं है। यहाँ निश्चय को प्रधान करके कथन है जिसमें गुणस्थानादि से अरहंत का स्थापन करना कहा है ।। ३१ ।। उत्थान सो ही आगे विशेष रूप से कहते हैं :– तेरह गुणठाणे सजोयकेवलिय होइ अरहंतो । चउतीस अइसयगुणो होंति हु तस्सट्ठ पडिहारा ।। ३२ ।। अर्हत सयोगीकेवली, गुणथान तेरहवे में हों । चौंतीस अतिशय गुण सहित, वसु प्रतिहार्य से युत प्रकट । । ३२ । । अर्थ गुणस्थान चौदह कहे हैं, उनमें सयोगकेवली नामक जो तेरहवाँ गुणस्थान उसमें योगों की प्रवत्ति सहित और केवलज्ञानयुक्त सयोगकेवली अरहंत होते हैं। उनके चौंतीस अतिशय तो गुण और आठ प्रातिहार्य होते हैं- इस प्रकार गुणस्थान के द्वारा 'स्थापना अरहंत' कहे जाते हैं । भावार्थ यहाँ चौंतीस अतिशय और आठ प्रातिहार्य कहने से तो समवसरण में विराजमान तथा विहार करते अरहंत लिये हैं, 'सयोग' कहने से विहार की और वचन की प्रवत्ति सिद्ध होती है तथा 'केवली' कहने से केवलज्ञान के द्वारा सब तत्त्वों का जानना सिद्ध होता है । चौंतीस अतिशय इस प्रकार हैं : जन्म से तो ये दस प्रकट होते हैं - १. मल-मूत्र का अभाव, २. पसेव (पसीने) का अभाव, ३. रुधिर व मांस का होना, ४. समचतुरस्रसंस्थान, ५. वज्रव षभनाराच संहनन, ६. सुन्दर रूप, ७. सुगन्धित शरीर, ८. शुभ लक्षणों का होना, ६ . अनन्त बल तथा १० मधुर वचन । केवलज्ञान उत्पन्न होने पर ये दस होते हैं - १. उपसर्ग का अभाव, २. अदया ४-३१ 卐卐卐糕糕 卐 麻糕卐糕蛋糕卐渊渊渊渊渊渊渊渊渊
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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