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________________ अष्ट पाहुड़ta पाहड़M alirates स्वामी विरचित . आचाय कुन्दकुन्द 3 HDool. BOCE HDool जाता है फिर उनका अभाव कैसे कहा ? उसका समाधान यहाँ जिस मरण में मरकर फिर संसार में जन्म हो ऐसे 'मरण' की अपेक्षा है, ऐसा मरण अरहंत के नहीं है, ऐसे ही जिस पुण्य प्रक ति का उदय पाप प्रक ति की सापेक्षता करे ऐसे पुण्य के उदय का उनके अभाव जानना अथवा बंध की अपेक्षा पुण्य का बंध भी नहीं है, जो साता वेदनीय बंधती है वह स्थिति-अनुभाग के बिना अबंध तुल्य ही है। फिर कोई पूछता है-केवली के असाता वेदनीय का उदय भी सिद्धांत में कहा है उसकी प्रव त्ति कैसे है? उसका समाधान-असाता के अत्यन्त मंद अनुभाग का उदय है और साता के अति तीव्र अनुभाग का उदय है जिसके वश से असाता कुछ बाह्य कार्य करने में समर्थ नहीं होती, सूक्ष्म उदय देकर खिर जाती है अथवा संक्रमण रूप होकर साता रूप हो जाती है-ऐसा जानना। ऐसे अनंत चतुष्टय से सहित और सर्व दोषों से रहित जो सर्वज्ञ वीतराग हों वे नाम से 'अरहत' कहलाते हैं।।३०।। 添添添添添馬樂樂先养养業樂業樂業樂事業部 उत्थानिका 崇先养养擺擺禁藥男崇崇崇勇兼勇崇勇攀事業蒸蒸勇攀事業 आगे 'स्थापना के द्वारा' अरहंत का वर्णन करते हैं :गुणठाणमग्गणेहिं य पज्जत्ती पाण जीवठाणेहिं। ठावण पंचविहेहिं पणयव्वा अरहपुरिसस्स।। ३१।। हैं मार्गणा, गुणथान, प्राण, पर्याप्ति, जीवस्थान जो। इन पाँचविध स्थाप, कर प्रणमन, तू अर्हत पुरुष को ।।३१।। अर्थ गुणस्थान, मार्गणा, पर्याप्ति, प्राण और जीवस्थान-इन पाँच प्रकारों से अरहंत पुरुष की स्थापना प्राप्त करना अथवा उनको प्रणाम करना। भावार्थ स्थापना निक्षेप में जो काष्ठ-पाषाणादि में संकल्प करना कहा है वह यहाँ 崇崇明業崇崇明藥業崇明崇崇明崇明崇崇明崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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