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________________ अष्ट पाहुड़ ate-site स्वामी विरचित आचाय कुन्दकुन्द ..... Doo||* Deol Helt Dad •load सब नाम, स्थापन, द्रव्य, भाव, स्वकीय गुण-पर्याय जो। हैं जनाते अरहंत को, ये च्यवन, आगति, संपदा ।।२8 ।। अर्थ नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-ये जो चार 'भाव' अर्थात् पदार्थ हैं वे अरहंत का बोध कराते हैं तथा 'सगुणपर्याया' अर्थात् अरहंत के गुण पर्यायों सहित 'चउणा' अर्थात च्यवन, आगति और सम्पदा-ऐसे ये भाव अरहंत को बताते 步骤步骤業業業樂業業助兼業助兼業助兼崇明崇崇勇 भावार्थ अरहंत शब्द से यद्यपि सामान्य की अपेक्षा जो केवलज्ञानी हों वे सब ही अरहंत होते हैं तथापि यहाँ तीर्थंकर पद को प्रधान करके कथन किया है इसलिए नामादि से ज्ञान कराना कहा है सो लोकव्यवहार में नाम आदि की प्रव त्ति इस प्रकार है१.जो जिस वस्तु का नाम हो वैसा उसमें गुण न हो उसको तो नाम निक्षेप कहते हैं। २.जिस वस्तु का जैसा आकार हो उस आकार की उसकी काष्ठ-पाषाणादि की मूर्ति बनाकर उसका संकल्प करना उसको स्थापना कहते हैं। ३.जिस वस्तु की जो पहिली अवस्था हो उस ही को अगली अवस्था में प्रधान करके कहना उसको द्रव्य कहते हैं तथा ४.वर्तमान में जो अवस्था हो उसको भाव कहते हैं। ऐसे चार निक्षेपों की जो प्रव त्ति है जिसका कथन शास्त्र में भी लोक को समझाने के लिये किया है कि निक्षेप विधान के द्वारा नाम, स्थापना और द्रव्य को भाव न समझना-नाम को नाम समझना, स्थापना को स्थापना समझना, द्रव्य को द्रव्य समझना और भाव को भाव समझना क्योंकि अन्य को अन्य समझने पर 'व्यभिचार' नामक दोष आता है अतः उसके मेटने को और लोक को यथार्थ समझाने को शास्त्र में कथन है किन्तु यहाँ वैसा निक्षेप का कथन नहीं समझना। यहाँ तो निश्चयनय को प्रधान करके कथन है सो जैसा अरहंत का नाम है वैसा ही गुण सहित नाम जानना, स्थापना जैसी उनकी देह सहित मूर्ति है वैसी ही स्थापना जानना, जैसा उनका द्रव्य है वैसा द्रव्य जानना और जैसा उनका भाव है वैसा ही भाव जानना।।२८|| 崇先养养擺擺禁藥男崇崇崇勇兼勇崇勇攀事業蒸蒸勇攀事業 崇崇明業崇崇明藥業名崇明崇崇明崇明崇崇明崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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