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वामी विरचित
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आचाय कुन्दकुन्द
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उत्थानिका
आगे 'अरहंत' का स्वरूप कहते हैं :णामे ठवणे हि य संदव्वे भावे हि सगुणपज्जाया। चउणागदि संपदिमे भावा भावंति अरहतं ।। २8।।
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टि0-1. श्रु0 टी0' में गाथा में आए हुए 'सगुणपज्जाया' एवं 'भावा' ब्द की सं0 छाया क्रमश:
'स्वगुणपर्यायाः' एवं 'भव्या' देते हुए गाथा का अर्थ किया है-'नामादि चार निक्षेप, स्वकीय गुण, स्वकीय पर्याय, च्यवन, आगति और संपदा-इन नौ बातों का आश्रय करके अत्यंत निकट, श्रेष्ठ भव्य जीव अरिहंत भगवान की भावना करते हैं अर्थात् उन्हें अपने हृदय कमल में निचल रूप से धारण करते हैं। नामादि चार निक्षेप के लिए उन्होंने गाथा उद्धात की है
णामजिणा जिणणामा ठवणजिणा तह य ताह पडिमाओ।
दव्वजिणा जिणजीवा भावजिणा समवसरणत्था।। अर्थ- अर्हन्त भगवान के जो नाम हैं वे नाम जिन हैं, उनकी प्रतिमाएँ स्थापना जिन हैं, अर्हन्त
भगवान का जीव द्रव्य जिन है और समवरण में स्थित भगवान भाव जिन हैं। अन्य स्वकीय गुण आदि पाँच बातों की वहाँ आगे विवेचना इस प्रकार है1. स्वकीय गुण-अनन्त ज्ञान, दनि, सुख एवं वीर्य-ये अर्हत के स्वकीय गुण हैं। 2.स्वकीय पर्याय-दिव्य परमौदारिक रीर, अष्ट महा प्रातिहार्य और समवरण आदि-ये अरिहन्त भगवान की स्व पर्याय हैं। 3. च्यवन-स्वर्ग वा नरक से उनका च्यवन होता है। 4.आगति-भरत, ऐरावत और विदेहादि क्षेत्र में उनका आगमन होता है अर्थात् स्वर्ग या नरक से च्युत होकर वे इन क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं। 5.सपंदा-गर्भावतार से पूर्व छ: मास और गर्भ के पूरे नव मास-इस तरह पन्द्रह मास पर्यन्त रत्न, सुवर्ण, पुष्प व गन्धोदक आदि की वष्टि माता के आंगन में होती है और पूरा नगर ही सुवर्णमयी हो जाता है। भगवान की इस सारी संपत्ति का वर्णन विस्तार से 'महापुराण' से जानना चाहिए। 'म0 टी0' में 'सगुणपज्जाया' ब्द की सं0 छाया सद्गुणपर्यायैः' एवं 'भावा' ब्द के स्थान पर 'भव्वा' (सं0-भव्या:) पाठ देकर गाथा का अर्थ किया है-'अहंत भगवान के उत्कृष्ट गुण और पर्यायों के द्वारा, नामादि चार निक्षेपों के आधार पर, स्वर्ग अथवा नरक से च्युत होते हुए अर्थात् गर्भ व जन्म के समय संपत्तिमान अर्हत आत्मा का भव्य जीव अपने अंत:करण में चिन्तन करते हैं।'
बा.४-२६, 崇明崇崇明崇明藥業、 業業野野野野野
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