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________________ अष्ट पाहुड़strate. स्वामी विरचित आचाय कुन्दकुन्द Toes. Dec . Dooo HDod Dec -Dool Deol ADOO उत्थानिका उत्थानिका 0 業業業宏業業業業巩巩巩巩巩 आगे फिर कहते हैं :जं णिम्मलं सुधम्म सम्मत्तं संजमं तवं णाणं। तं तित्थं जिणमग्गे हवेइ जदि संतिभावेण ।। २७।। सम्यक्त्व, संयम, ज्ञान, तप, सद्धर्म मल से रहित जो। यदि शान्त भाव से युक्त हों तो, तीर्थ हैं जिनमार्ग में ।।२७ ।। अर्थ जिनमार्ग में १. निर्मल उत्तम क्षमादि धर्म, २. तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण शंकादि मल रहित निर्मल सम्यक्त्व, ३. इन्द्रिय-मन को वश में करना और षटकाय के जीवों की रक्षा करना-ऐसा निर्मल संयम, ४. अनशन, अवमौदर्य, व त्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश-ऐसा बाह्य तो छह प्रकार तथा प्रायश्चित, विनय, वैयाव त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ऐसा छह प्रकार का अन्तरंग-ऐसा बारह प्रकार का निर्मल तप तथा ५. जीव-अजीवादि पदार्थों का यथार्थ ज्ञान-ये तीर्थ हैं। ये भी यदि शांत भाव से सहित हों और कषाय भाव न हों तो निर्मल तीर्थ हैं क्योंकि ये यदि क्रोधादि भाव | सहित होते हैं तो मलिनता हो जाती है और तब निर्मलता नहीं रहती। भावार्थ | जिनमार्ग में ऐसा तीर्थ कहा है। लोग सागर व नदियों को तीर्थ मानकर उनमें | स्नान करके निर्मल होना चाहते हैं सो शरीर का बाह्य मल तो इनसे किचित् उतरता है परन्तु उसका धातु-उपधातु रूप अन्तर्मल इनसे नहीं उतरता और ज्ञानावरण आदि कर्म रूप मल तथा अज्ञान एवं राग-द्वेष-मोह आदि भावकर्म रूप जो आत्मा के अन्तर्मल हैं वे तो इनसे किचित् मात्र भी नहीं उतरते उल्टे हिंसादि से 卐 पापकर्म रूप मल लगता है इसलिये सागर व नदी आदि को तीर्थ मानना भ्रम है। जिसके द्वारा तिरा जाये सो 'तीर्थ' है- ऐसा तीर्थ जो जैसा जिनमार्ग में कहा है सो वैसा ही संसार समुद्र से तारने वाला जानना। ऐसे 'तीर्थ' का स्वरूप कहा।।२७।। 崇先养养擺擺禁藥男崇崇崇勇兼勇崇勇攀事業蒸蒸勇攀事業 業坊業坊業坊 崇崇明業崇崇明藥業、崇崇崇明崇明崇崇明崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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