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________________ 麻糕卐卐卐業業卐業業業卐業卐卐卐卐 आचार्य कुन्दकुन्द ● अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित मइधणुहं जस्स थिरं सुदगुण बाणं सुअत्थि रयणत्तं । परमत्थबद्धलक्खो ण वि चुक्कदि मोक्खमग्गस्स ।। २३ ।। मति धनुष थिर, श्रुत डोरी जिसके, रत्नत्रय शुभ बाण हो । परमार्थ बद्ध हो लक्ष्य वह, नहिं चूकता शिवमार्ग को ।। २३ ।। अर्थ जिस मुनि के १. मतिज्ञान रूप धनुष स्थिर हो, २. श्रुतज्ञान रूप जिसके 'गुण' अर्थात् प्रत्यंचा (डोरी) हो, ३. रत्नत्रय रूप जिसके भला बाण हो तथा ४. परमार्थस्वरूप निज शुद्ध आत्म रूप का जिसने सम्बन्ध रूप लक्ष्य किया हो ऐसा मुनि है सो मोक्षमार्ग को नहीं चूकता है। भावार्थ जैसे धनुष की सब सामग्री यथावत् मिले तो निशाना नहीं चूकता है वैसे मुनि को मोक्षमार्ग की यथावत् सामग्री मिले तो वह मोक्षमार्ग से भ्रष्ट नहीं होता है बल्कि उसके साधन से मोक्ष पाता है- यह ज्ञान का माहात्म्य है इसलिये जिनागम के अनुसार सत्यार्थ ज्ञानियों का विनय करके ज्ञान का साधन करना। ऐसे 'ज्ञान' का निरूपण किया ।। २३ ।। उत्थानिका आगे ‘देव' का स्वरूप कहते हैं : सो देवो जो अत्थं धम्मं कामं सुदेइ णाणं च । सो देइ जस्स अत्थि दु अत्थो धम्मो य पव्वज्जा ।। २४ ।। है देव वह जो धर्म, अर्थ व काम अरु दे ज्ञान को । जिसके हो जो वस्तु सो दे वह, धर्म, अर्थ अरु प्रव्रज्या । । २४ । । अर्थ 'देव' उसे कहते हैं जो 'अर्थ' अर्थात् धन, धर्म, 'काम' अर्थात् इच्छा के विषय ऐसे 業卐業 卐卐 出業業業業業業業業業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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