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आचार्य कुन्दकुन्द
● अष्ट पाहुड़
जो परमात्म-स्वरूप है उसको यदि नहीं पहिचाने तो मोक्षमार्ग की सिद्धि नहीं होती
इसलिए ज्ञान को जानना । परमात्मा रूप निशाना ज्ञान रूप बाण ही से वेधने योग्य है ।। २१ ।।
स्वामी विरचित
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि ऐसा ज्ञान जो विनय संयुक्त पुरुष होता है सो पाता है णाणं पुरिसस्स हवदि लहदि सुपुरिसो वि विणयसंजुत्तो ।
णाणेण लहदि लक्खं लक्खतो मोक्खमग्गस्स ।। २२ ।।
ज्ञान पुरुष
को प्राप्त,
होता है वह सुजन विनीत को ।
पाता है ज्ञान से मोक्षमग के, लक्ष्य को लखते हुए ।। २२ ।।
अर्थ
ज्ञान होता है वह पुरुष को होता है तथा पुरुष यदि विनयसंयुक्त हो तो ही ज्ञान
को पाता है और ज्ञान को पाता है तब उस ज्ञान ही से मोक्षमार्ग का लक्ष्य जो
परमात्मा का स्वरूप उसको लक्षता-ध्याता हुआ उस लक्ष्य को पाता है ।
भावार्थ
ज्ञान पुरुष के होता है तथा पुरुष ही यदि विनयवान हो तो ज्ञान को पाता है
और उस ज्ञान ही से शुद्ध आत्मा का स्वरूप जाना जाता है इसलिये विशेष
—
ज्ञानियों का विनय करके ज्ञान की प्राप्ति करना जिससे निज शुद्ध स्वरूप को
जानकर मोक्ष पाया जाता है। यहाँ जो विनय से रहित होकर यथार्थ सूत्र- पद
से विचलित हुए अर्थात् भ्रष्ट हो गए उनका निषेध जानना ।। २२ ।।
उत्थानिका
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आगे इसी को दढ़ करते हैं
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