SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्ट पाहुड़attrate स्वामी विरचित आचाय कुन्दकुन्द Doolle O Do Dog/ Dod TOOS अर्थ ऐसे पूर्वोक्त जिनबिम्ब को प्रणाम करो तथा सर्व प्रकार पूजा करो तथा विनय करो तथा वात्सल्य करो। किसलिए? जिस कारण उनके ध्रुव अर्थात् निश्चय से दर्शन-ज्ञान पाया जाता है तथा चेतनाभाव है।।१७।। भावार्थ दर्शनज्ञानमयी चेतनाभाव सहित जिनबिम्ब आचार्य हैं उनको प्रणामादि करना। यहाँ परमार्थ को प्रधान कहा है सो जड़ प्रतिबिम्ब की गौणता है। उत्थानिका 崇崇崇崇明崇崇崇明藥業事業藥業業業業帶 __ आगे फिर कहते हैं। :तववयगुणेहिं सुद्धो जाणदि पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं । अरहंतमुद्द एसा दायारी दिक्ख सिक्खा या।। १8।। तप, व्रत, गुणों से शुद्ध, जाने-देखे शुध सम्यक्त्वयुत।। दीक्षा व शिक्षादायिनी, अर्हन्त मुद्रा है वही ।।१8 ।। अर्थ जो १.तप और व्रत और 'गुण' अर्थात् उत्तरगुणों से शुद्ध हो, २.सम्यग्ज्ञान से पदार्थों को यथार्थ जाने तथा ३.सम्यग्दर्शन से पदार्थों को देखे इसी से शुद्ध सम्यक्त्व जिसके हो-ऐसा जिनबिम्ब आचार्य है सो यह ही दीक्षा शिक्षा देने वाली अरहंत की मुद्रा है। भावार्थ ऐसा जिनबिम्ब है सो जिनमुद्रा ही है। इस प्रकार 'जिनबिम्ब' का स्वरूप कहा।।१८।। 器听听听听器凱業听器听听听听听听听听听听听听 टिO-1.इस अठारहवीं गाथा को माननीय पं0 जयचंद जी' ने बोधपाहुड' के ग्यारह स्थलों में से पांचवें स्थल जिनबिम्ब' में लिया है परन्तु निम्न कारणों से यह जिनबिम्ब' सम्बन्धित न होकर छठे स्थल 'जिनमुद्रा' की क्यों प्रतीत होती है इसके कारणों को जिज्ञासु पाठकगण ढूंढारी टीका से जान लें। वहाँ इसी स्थल पर विस्तात टिप्पण दिया गया है। मला४-१८, 業業樂業助兼業助業 崇明崇崇明崇勇攀崇崇勇
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy