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अष्ट पाहुड़ta
वामी विरचित
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आचाय कुन्दकुन्द
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जिणबिंब णाणमयं संजमसुद्धं सुवीयरायं च। जं देइ दिक्खसिक्खा कम्मक्खयकारणे सुद्धा।। १६ ।। संयम से शुद्ध, सुवीतरागी, ज्ञानमय जिनबिम्ब जो। वे शुद्ध दीक्षा-शिक्षा देते, कर्मक्षय की हेतु जो ।।१६ । ।
अर्थ जिनबिम्ब कैसा है-१. ज्ञानमयी है, २. संयम से शुद्ध है, ३. अतिशय से वीतराग है तथा ४. वह कर्मों के क्षय की कारण और शुद्ध ऐसी दीक्षा और शिक्षा देता है।
भावार्थ जो जिन अर्थात् अरहंत सर्वज्ञ, उसका प्रतिबिम्ब अर्थात् उसके स्थान पर उसी के समान मानने योग्य हो ऐसे आचार्य हैं सो 'दीक्षा' अर्थात् व्रत का ग्रहण और 'शिक्षा' अर्थात् व्रत का विधान बताना-ये दोनों कार्य भव्य जीवों को देते हैं इस कारण प्रथम तो १. वह आचार्य ज्ञानमयी हो अर्थात् जिनसूत्र का जिनको ज्ञान हो, ज्ञान बिना यथार्थ दीक्षा शिक्षा कैसे दें, २. आप संयम से शुद्ध हों, यदि ऐसे न हों तो अन्य को भी शुद्ध संयम न करावें तथा ३. अतिशय से वीतराग न हों तो कषाय सहित हों तब दीक्षा-शिक्षा यथार्थ न दें-इस कारण ऐसे आचार्य को जिन के प्रतिबिम्ब जानना ।।१६।।
उत्थानिका
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आगे फिर कहते हैं :तस्स य करह पणामं सव्वं पुज्जं च विणय वच्छल्लं। जस्स य दंसण णाणं अत्थि धुवं चेयणाभावो।। १७ ।। उनको करो प्रणमन, विनय, वात्सल्य, पूजा सर्वविध।
जिनके सुनिश्चित ज्ञान, दर्शन और चेतनभाव है।।१७ ।। 崇崇明業崇崇明藥業名崇明崇崇明崇明崇崇明崇明