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________________ अष्ट पाहुड़ ate-site वामी विरचित Me.... आचाय कुन्दकुन्द HDoole pect HDod ADeo जिनका है अंतविहीन दर्शन, ज्ञान, सुख अरु अमित बल। शाश्वत सुखी निर्देह जो, कर्माष्ट बंध विमुक्त हैं। ।१२।। निरुपम, अचल, अक्षोभ, ध्रुव, निर्मित जो जंगम रूप से। स्थित है सिद्धस्थान में, व्युत्सर्ग प्रतिमा सिद्धों की ।।१३।। अर्थ 巩巩巩巩巩巩巩巩業巩業業巩巩巩巩巩業巩巩牆% १. जो अनन्त चतुष्टय युक्त है-अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत वीर्य एवं अनन्त सुख से सहित है; २. शाश्वत अविनाशी सुखस्वरूप है; ३. अदेह है-कर्म नोकर्म रूप पुदगलमयी देह जिनके नहीं है ४. अबन्ध है-अष्ट कर्मों के बंध से रहित है; 卐५. उपमा रहित है-जिसकी उपमा दी जाए ऐसी लोक में वस्तु नहीं है; ६. अचल है-प्रदेशों का चलना जिसके नहीं है; ७. अक्षोभ है-जिसके उपयोग में कुछ क्षोभ नहीं है, निश्चल है; 8. जंगम रूप से निर्मित है-कर्म से निर्मुक्त होने के बाद एक समय गमन रूप होते हैं इसलिए जंगम रूप से निर्मापित है तथा 9. सिद्धस्थान जो लोक का अग्रभाग उसमें स्थित है इसी से 'व्युत्सर्ग' अर्थात् काय रहित जैसा पूर्व में देह का आकार था वैसा प्रदेशों का आकार कुछ कम ध्रुव है, संसार से मुक्त होकर एक समय गमन करके लोक के अग्रभाग में जाकर स्थित हो जाते हैं फिर चलाचल नहीं होते-ऐसी प्रतिमा सिद्ध है। भावार्थ पहले दो गाथा में तो जंगम प्रतिमा संयमी मुनि की देह सहित कही फिर इन दो गाथाओं में थिर प्रतिमा सिद्धों की कही-ऐसे जंगम-थावर प्रतिमा का स्वरूप कहा, अन्य कई अन्यथा बहुत प्रकार से कल्पना करते हैं सो प्रतिमा वंदने योग्य नहीं है। यहाँ प्रश्न-जो यह तो परमार्थ स्वरूप कहा और बाह्य व्यवहार में पाषाणादि की प्रतिमा की वंदना की जाती है वह कैसे ? 崇先养养擺擺禁藥男崇崇崇勇兼勇崇勇攀事業蒸蒸勇攀事業 勇攀業業業樂業業業事業樂業業助兼崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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