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________________ wwwww 專業業業業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द ● अष्ट पाहुड़ उसका समाधान जो बाह्य व्यवहार में मतांतर के भेद से अनेक रीति से स्वामी विरचित प्रतिमा की प्रवत्ति है सो यहाँ परमार्थ को प्रधान करके कहा है और जो व्यवहार है सो जैसा परमार्थ हो उसी को सूचित करता हुआ हो तो वह निर्बाध होता है। सो जैसा प्रतिमा का परमार्थ रूप आकार कहा वैसा ही आकार रूप यदि व्यवहार हो तो वह व्यवहार भी प्रशस्त है, व्यवहारी जीवों के वह भी वंदने योग्य है, स्याद्वाद न्याय से साधने पर परमार्थ और व्यवहार में विरोध नहीं है। णिग्गंथं ऐसे 'जिनप्रतिमा' का स्वरूप कहा । । १२-१३ ।। उत्थानिका आगे 'दर्शन' का स्वरूप कहते हैं : दंसेइ मोक्खमग्गं सम्मत्तं संजमं धम्मं च। णाणमयं जिणमग्गे दंसणं सम्यक्त्व, संयम, धर्ममय, शिवमग को निर्ग्रन्थ ज्ञानमयी उसे, जिनमार्ग जो दरशावता । भणियं । । १४ । । दर्शन कहा | | १४ ।। अर्थ जो मोक्षमार्ग को दिखाता है वह दर्शन है। कैसा है मोक्षमार्ग - सम्यक्त्व अर्थात् तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण सम्यक्त्व रूप है। और कैसा है- 'संयम' अर्थात् चारित्र, पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति - ऐसे तेरह प्रकार चारित्र रूप है । और कैसा है- 'सुधर्म' अर्थात् उत्तम क्षमादि दशलक्षण धर्म रूप है। और कैसा है-निर्ग्रथ रूप 卐卐糕糕糕 है, बाह्य अभ्यंतर परिग्रह से रहित है । और कैसा है- ज्ञानमयी है, जीव-अजीव आदि पदार्थों को जानने वाला है। यहाँ निर्ग्रथ और ज्ञानमयी ये दोनों विशेषण सो बाह्य में तो इसकी मूर्ति निर्ग्रथ रूप है दर्शन के भी होते हैं क्योंकि दर्शन है और अन्तरंग ज्ञानमयी है। ऐसे मुनि के रूप को जिनमार्ग में दर्शन कहा है तथा ऐसे रूप के श्रद्धान रूप सम्यक्त्व को भी दर्शन कहते हैं। ४-१५ 卐業卐糕卐 灬糕糕糕糕糕糕糕糕糕糕
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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