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________________ **業業業業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द ● अष्ट पाहुड़ संयमी मुनि है वह चैत्यग ह है, अन्य को चैत्यग ह कहना वा मानना सो व्यवहार है । ऐसे 'चैत्यग ह' का स्वरूप कहा । ।9।। सपरा आगे 'जिनप्रतिमा' का निरूपण करते हैं : जंगमदेहा दंसणणाणेण सुद्धचरणाणं । णिग्गंथवीयराया जिणमग्गे रसा पडिमा ।। १० ।। दग-ज्ञान निर्मल चरणधर की, स्व-पर जंगम देह जो । बिन राग है निर्ग्रन्थ सो, जिनमार्ग में प्रतिमा कही । । १० ।। उत्थानिका स्वामी विरचित अर्थ दर्शन-ज्ञान से शुद्ध-निर्मल है चारित्र जिनका उनकी 'स्वपरा' अर्थात् अपनी और पर की जो चलती हुई देह है अथवा 'स्वपरा' अर्थात् आत्मा से 'पर अर्थात् भिन्न ऐसी जो देह है, सो जिनमार्ग में जंगम प्रतिमा है। सो कैसी है - निर्ग्रथस्वरूप टिo - 1. ढूंढारी टीका में देखें । है, जिसके कुछ परिग्रह का लेश नहीं ऐसी दिगम्बर मुद्रा युक्त है। और कैसी है-वीतरागस्वरूप है, जिसके किसी वस्तु से राग-द्वेष - मोह नहीं है। जिनमार्ग में ऐसी प्रतिमा कही है। भावार्थ जिनके दर्शन-ज्ञान से निर्मल चारित्र पाया जाता है ऐसे मुनियों की गुरु-शिष्य की अपेक्षा अपनी तथा पर की चलती हुई देह जो निर्ग्रथ वीतराग मुद्रास्वरूप है वह जिनमार्ग में प्रतिमा है, अन्य कल्पित है और धातु - पाषाण आदि से निर्मित जो दिगम्बर मुद्रास्वरूप प्रतिमा कही जाती है सो व्यवहार है, वह भी यदि बाह्य आक ऐसी ही हो तो व्यवहार में मान्य है 1 || १० || 卐卐卐糕糕 ४-१२ 【專業 排糕蛋糕卐卐業糕糕渊渊業業卐業業卐業生
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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