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अष्ट पाहुड़ta
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वामी विरचित
आचाय कुन्दकुन्द
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भावार्थ जिसमें स्व-पर को जानने वाला, ज्ञानी, निष्पाप-निर्मल ऐसा 'चैत्य' अर्थात चेतनास्वरूप आत्मा रहता है वह 'चैत्यग ह' है सो ऐसा चैत्यग ह संयमी मुनि है, अन्य पाषाण आदि के मन्दिर को चैत्यग ह कहना व्यवहार है।।8।।
20 उत्थानिका| a
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आगे फिर कहते हैं :चेइय बंधं मोक्खं दुक्खं सुक्खं च अप्पयं तस्स'। चेइहरं जिणमग्गे छक्कायहियंकरं भणियं ।। 9।। वह चैत्य आत्मिक जिसके है, सुख-दुःख बंधन-मोक्ष अरु ! षट्कायहितकर चैत्यग ह, जिनमार्ग में उसको कहा।।9।।
अर्थ जिसके बंध और मोक्ष तथा सुख और दुःख ये अपने हों अर्थात् जिसके स्वरूप में हों उसे 'चैत्य' कहते हैं क्योंकि जो चेतनास्वरूप हो उसी के बंध, मोक्ष, सुख एवं दुःख संभव हैं। ऐसा जो चैत्य उसका जो ग ह हो वह चैत्यग ह है सो जिनमार्ग में ऐसा चैत्यग ह जो छह काय का हित करने वाला हो ऐसा मुनि है। सो पाँच स्थावर और त्रस में विकलत्रय और असैनी पंचेन्द्रिय तक तो केवल रक्षा ही करने योग्य है इसलिए उनकी रक्षा करने का उपदेश करते हैं तथा स्वयं उनका घात नहीं करते, उनका यह ही हित है तथा सैनी पंचेन्द्रिय जो जीव हैं उनकी १. रक्षा भी करते हैं, २. रक्षा का उपदेश भी करते हैं तथा ३. उनको संसार से निव त्ति रूप मोक्ष होने का उपदेश करते हैं इस प्रकार मुनिराज को चैत्यग ह कहा जाता है।
भावार्थ लौकिकजन चैत्यग ह का स्वरूप अन्यथा अनेक प्रकार का मानते हैं उनको सावधान किया है कि जिनसूत्र में तो जो छह काय का हित करने वाला ज्ञानमयी
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| टि0-1.ढूंढारी टीका में देखें ।
बा४-११), 業業助聽業事業業、 崇勇聽聽業事業