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उत्थानिका ।
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आगे इस बोधपाहुड़ में जो 'ग्यारह स्थल' बांधे हैं, उनके नाम कहते हैं :
आयदणं चेदिहरं जिणपडिमा दंसणं च जिणबिंब । भणियं सुवीयरायं जिणमुद्दा णाणमादत्थं ।। ३।। अरहंतेण सुदिटुं जं देवं तित्थमिह य अरहतं। पावज्ज गुणविसुद्धा इय णायव्वा जहाकमसो।। ४।। जुगम।। जिनप्रतिमा, दर्शन, चैत्यग ह, जिनमुद्रा एवं आयतन। जिनबिम्ब होवे वीतरागी, आत्महेतुक ज्ञान अरु ।। ३।। अरहंतदेशित देव व तीरथ तथा अरहंत हैं। गुण से विशुद्ध हो प्रव्रज्या, ये यथाक्रम ज्ञातव्य हैं ।।४।।
अर्थ १.आयतन; २.चैत्यग ह; ३.जिनप्रतिमा; ४.दर्शन; ५.जिनबिम्ब, कैसा है जिनबिम्ब? सुष्ठ अर्थात् भली प्रकार वीतराग है, रागसहित नहीं है; ६.जिनमुद्रा; ७.ज्ञान-वह ऐसा है कि आत्मा ही उसमें अर्थ अर्थात् प्रयोजन है-इस प्रकार सात तो ये जैसे वीतरागदेव ने कहे वैसे यथा अनुक्रम से जानने तथा १.देव; २.तीर्थ; ३.अरहंत
और ४.गुण से विशुद्ध प्रव्रज्या-ये चार जैसे अरहंत भगवान ने कहे वैसे इस ग्रंथ में जानने-इस प्रकार ये ग्यारह स्थल हुए।
भावार्थ यहाँ ऐसा आशय जानना कि 'धर्ममार्ग में काल के दोष से अनेक मत हुए हैं तथा जैनमत में भी भेद हुए हैं, जिनमें आयतन आदि में विपरीतपना हुआ है,उनका परमार्थभूत सच्चा स्वरूप तो लोग जानते नहीं और धर्म के लोभी हुए जैसी बाह्य में प्रव त्ति देखते हैं उस ही में लगकर प्रवर्तन करने लग जाते हैं, उनको संबोधने के लिए इस 'बोधपाहुड़' की रचना की है। इसमें आयतन आदि ग्यारह स्थानकों का परमार्थभूत स्वरूप जैसा सर्वज्ञदेव ने कहा है वैसा कहेंगे, उनके अनुक्रम से जैसे नाम कहे वैसे ही अनुक्रम से उनका व्याख्यान
करेंगे, सो जानने योग्य है।।३-४।। 崇明崇勇崇崇明藥業第
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