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विषय वस्तु
इस पाहुड़ में पैंतालीस गाथाएँ हैं। चारित्र को मोक्ष के आराधन का कारण बताया गया है। कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि जीव के तीन भावों-दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र की शुद्धता के लिए जिनदेव ने सम्यक्त्वाचरण व संयमाचरण-ये दो प्रकार का चारित्र कहा है। सम्यक्त्व को अशुद्ध करने वाले शंकादि मल दोषों का परिहार करके निःशंकितादि आठ गुणों का प्रकट होना सो सम्यक्त्वाचरण
चारित्र है और महाव्रत आदि संयम अंगीकार करके उसके अतिचार आदि दोषों का दूर करना सो संयमाचरण चारित्र है।
वात्सल्य, विनय, अनुकंपा आदि सम्यक्त्व के चिन्ह हैं। मोक्षमार्ग में क्योंकि सम्यग्दर्शन प्रथम है इसलिए सम्यक्त्वाचरण चारित्र ही प्रधान है। इसका धारी पुरुष कर्मों की संख्यातगुणी व असंख्यातगुणी निर्जरा करता हुआ संसार के सारे दुःखों का नाश कर देता है और इसके बिना संयमाचरण चारित्र भी निर्वाण का कारण नहीं होता। सम्यक्त्वाचरण चारित्र से शुद्ध होकर जो संयमाचरण चारित्र से सम्यक् प्रकार शुद्ध होता है वह शीघ्र ही निर्वाण को पाता है।
इस प्रकार सम्यक्त्वाचरण चारित्र का वर्णन करके फिर आचार्य महाराज ने संयमाचरण चारित्र के सागार और निरागार-ऐसे दो भेद बताए हैं। सागार संयमाचरण के अन्तर्गत तो दर्शन, व्रत आदि ग्यारह प्रतिमाओं का और पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत व चार शिक्षाव्रत आदि बारह व्रतों का वर्णन किया है। तथा निरागार संयमाचरण में पाँच इन्द्रियों का संवरण, पाँच महाव्रत, पाँच समिति व तीन गुप्ति का
और पाँच महाव्रतों में से प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाओं का निरूपण है। फिर निश्चय चारित्र के कथन को मन में धारण करके ज्ञानस्वरूप आत्मा के अनुभव का उपदेश देते हुए इस चारित्र के पाहुड़ को शुद्ध भाव से भाने की प्रेरणा करके आचार्य देव ने ग्रंथ
का समापन किया है।
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