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________________ *業業業業業業業出版業業業業出 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्टपाहुड़ स्वामी विरचित करना - यह उपदेश है, क्योंकि चारित्र का स्वरूप जानकर उसे धारण करने की रुचि हो और अंगीकार करे तब चार गति रूप संसार के दुःख से रहित होकर निर्वाण को प्राप्त होता है तथा फिर संसार में जन्म धारण नहीं करता इसलिये जो कल्याण के अर्थी हैं वे ऐसा करो ।। ४५ ।। इस प्रकार सम्यक्त्वाचरण चारित्र और संयमाचरण चारित्र ऐसे दो प्रकार के चारित्र का स्वरूप इस प्राभत में कहा । छप्पय चारित दो प्रकार, देव जिनवर नैं समकित संयम चरण, ज्ञानपूरव तिस जे नर सरधावान, याहि धारैं विधि निश्चय अर व्यवहार, रीति आगम मैं जब जग धंधा सब मेटिकै, निज स्वरूप मैं तब अष्ट कर्म कूं नाशिकै, अविनाशी सुख 【卐卐 भाख्या । राख्या ।। सेती । जेती ।। थिर रहै । शिव लहै ।। १।। अर्थ जिनदेव ने सम्यक्त्वाचरण और संयमाचरण - ऐसा दो प्रकार का चारित्र कहा है और ज्ञान को उसके पूर्व में रखा है। जो श्रद्धावान नर निश्चय और व्यवहार रीति से आगम में जैसा कहा है वैसा उनको विधिपूर्वक धारण करते हैं वे जगत का सारा धंधा मेटकर जब निज स्वरूप में स्थिर होते हैं तब अष्टकर्म का नाश करके अविनाशी मोक्ष को प्राप्त करते हैं । । १ । । दोहा जिनभाषित चारित्र कूं, पालैं जे मुनिराज । तिनिके चरण नमूं सदा, पाऊं तिनि गुणसाज ।। २ ।। अर्थ जो जिनभाषित चारित्र का पालन करते हैं उन मुनिराज के चरणों में मैं सदा इसलिए नमस्कार करता हूँ जिससे मैं उनके गुणों के समूह को पा जाऊँ ।। २ ।। ३-४४ * 糝縢糕糕卐縢糕糕糕卐糕糕糕縢卐糕糕糕 卐糕糕卐卐
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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