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अष्ट पाहड़ate
स्वामी विरचित
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आचार्य कुन्दकुन्द
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इस भाँति ज्ञानी वीतरागी, देव ने संक्षेप से । सम्यक्त्व, संयम के आश्रय दो, प्रकार का भाषा चरित ।।४४।।
अर्थ "एवं' अर्थात ऐसे पूर्वोक्त प्रकार संक्षेप से श्री वीतराग देव ने कहा जो सम्यक्त्व और संयम-इन दोनों के आश्रय दोनों का चारित्र दो प्रकार का कहा है। कैसा है वीतराग-ज्ञान रूप सर्वज्ञ है।
भावार्थ श्री वीतराग सर्वज्ञ देव के द्वारा भाषित जो चारित्र उसका पूर्वोक्त प्रकार संक्षेप से सम्यक्त्व और संयम-इन दोनों के आश्रित सम्यक्त्वाचरण स्वरूप और संयमाचरण स्वरूप दो प्रकार से उद्देश रूप किया है, आचार्य देव ने चारित्र के कथन का संक्षेप रूप से कहकर संकोच किया है।।४४ ।।
उत्थानिका
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आगे इस 'चारित्रपाहुड़ को भाने का उपदेश और इसका फल' कहते हैं :
भावेह भावसुद्धं फुडु रइयं चरणपाहुडं चेव। लहु चउगई चइऊणं अचिरेण अपुणब्भवा होह।। ४५।। स्फुट रचित यह 'चरणपाहुड', भावो भाव विशुद्ध से। तज चतुर्गति को शीघ्र ही, निर्वाण जिससे प्राप्त हो।।४५।।
अर्थ आचार्य कहते हैं कि हे भव्यजीवों ! यह 'चरण' अर्थात् चारित्र का पाहुड हमने स्फुट प्रकट करके रचा है उसको तुम अपने भाव को शुद्ध करके भाओ, अपने भावों में बारम्बार अभ्यास करो, जिससे शीघ्र ही चार गतियों को छोड़कर अपुनर्भव जो मोक्ष सो तुम्हारे होगा, फिर संसार में जन्म नहीं पाओगे।
भावार्थ इस चारित्रपाहुड को बांचना, पढ़ना, धारण करना, बारम्बार भाना और अभ्यास * **55 155*55 5 5 5 5 5 985