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अष्ट पाहुड़ate
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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उत्थानिका
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आगे कहते हैं कि जो सम्यग्ज्ञान सहित चारित्र धारण करते हैं वे थोड़े ही
___ काल में अनुपम सुख को पाते हैं :चारित्तसमारूढ़ो अप्पासु' परं ण ईहए णाणी। पावइ अइरेण सुहं अणोवमं जाण णिच्छयदो।। ४३।।
चारित्र पे आरूढ़ ज्ञानी, पर को आत्म में ना चहें। निश्चय ही जानो अचिर, अनुपम, सौख्य को पाते हैं वे ।।४३।।
अर्थ जो पुरुष ज्ञानी है और चारित्र सहित है वह अपनी आत्मा में परद्रव्य की इच्छा नहीं करता, परद्रव्य में राग-द्वेष-मोह नहीं करता सो ज्ञानी जिसकी उपमा नहीं है ऐसा अविनाशी मुक्ति का सुख पाता है ऐसा हे भव्य ! तू निश्चय से जान। यहाँ ज्ञानी होकर हेय-उपादेय को जानकर संयमी हो जो परद्रव्य को अपने में नहीं मिलाता है वह परमसुख पाता है ऐसा बताया है।।४३।।
IANS उत्थानिका
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आगे इस चारित्र के कथन का संकोच करते हैं :एवं संखेवेण य भणियं णाणेण वीयराएण। सम्मत्तसंजमासय दण्हं पि उदेसियं चरणं।। ४४।।
टि0-1.इस ब्द की सं0 छाया-'आत्मन:' करते हुए 'श्रु0 टी0' में गाथा की प्रथम पंक्ति का अर्थ
किया है-'चारिक पर आरूढ़ हुआ अर्थात् चारित्र का पालन करता हुआ ज्ञानी आत्मा से पर अर्थात् भिन्न माला, स्त्र आदि अन्य इष्ट पदार्थों की इच्छा नहीं करता। जैसा कि कहा भी है-जिनका मन समसुख से सुवासित हो रहा है, उन्हें भोजन ही रुचिकर नहीं होता फिर अन्य कामभोगों की तो क्या कथा ! मछलियों को जब खाली जमीन भी जलाती है तो फिर अंगार
का तो कहना ही क्या है !' 崇明崇岳崇明崇明崇明禁藥騰騰騰崇明崇明崇崇明