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________________ गाथा चयन गाथा ४- एए तिण्णि वि भावा...' अर्थ-जीव के ज्ञानादि ये तीनों भाव अक्षय तथा अमेय होते हैं। इन तीनों की शुद्धि के लिए जिनदेव ने दो प्रकार का चारित्र कहा है । । १ । । • गा० ५–'जिणणाणदिट्ठिसुद्धं...' अर्थ-पहला सम्यक्त्व के आचरणस्वरूप चारित्र है सो जिनभाषित तत्त्वों के ज्ञान और श्रद्धान से शुद्ध है। दूसरा संयम का आचरणस्वरूप चारित्र है वह भी जिनदेव के ज्ञान से दिखाया हुआ शुद्ध है ।। २।। गा० १–—–—सम्मत्तचरणसुद्धा...' अर्थ-जो ज्ञानी अमूढ़द ष्टि होकर सम्यक्त्वाचरण चारित्र से शुद्ध हैं वे यदि संयमाचरण चारित्र से भी सम्यक् प्रकार शुद्ध होते हैं तो शीघ्र ही निर्वाण को पाते हैं । । ३ । । गा० १०- 'सम्मत्तचरणभट्ठा...' अर्थ-जो पुरुष सम्यक्त्वाचरण चारित्र से भ्रष्ट हैं और संयम का आचरण करते हैं वे अज्ञान और ज्ञान के विषय में मूढ़ होने के कारण निर्वाण को नहीं पाते हैं । । ४ । । गा० १9- 'एए तिणि वि भावा.....' अर्थ-ये सम्यग्दर्शनादि तीनों भाव मोह रहित जीव के होते हैं तब यह जीव अपने आत्मगुण की आराधना करता हुआ शीघ्र ही कर्म का नाश करता है ।। ५ ।। गाथा २०–‘संखिज्जमसंखिज्जं .... अर्थ- सम्यक्त्व का आचरण करने वाले धीर पुरुष संसारी जीवों की मर्यादा मात्र कर्मों की संख्यातगुणी तथा असंख्यातगुणी निर्जरा करते हुए दुःखों का क्षय करते हैं ।।६।। गाथा ३१–'साहंति जं... अर्थ-इनको महंत पुरुष साधते हैं तथा पहले भी ये महापुरुषों के द्वारा आचरण किये गये हैं और ये आप ही महान हैं इसीलिए ये व्रत महाव्रत कहलाते हैं । ।७।। गाथा ३8 - 'भव्वजणबोहणत्थं....' अर्थ-जिनमार्ग में जिनेश्वर देव ने भव्य जीवों को ३-४६
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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