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________________ अष्ट पाहड़ate स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द 8 Des/ Doolol Dool संयम की शुद्धता की कारण हैं, यह जिनदेव ने कहा है। भावार्थ मुनि पाँच महाव्रत रूप संयम का साधन करते हैं, उस संयम की शुद्धता के लिए पाँच समिति रूप प्रवर्तते हैं इसी कारण इसका नाम सार्थक है। 'स' अर्थात् सम्यक् प्रकार 'इति' अर्थात् प्रव त्ति जिसमें हो सो समिति है। १.गमन करें तब चार हाथ प्रमाण प थ्वी देखते चलते हैं, २.बोलें तब हित मित रूप वचन बोलते हैं, ३.आहार लें सो छियालीस दोष, बत्तीस अंतराय टाल और चौदह मल रहित शुद्ध आहार लेते हैं, ४.धर्मोपकरणों को उठावें-लें तब यत्नपूर्वक ग्रहण करते हैं ऐसे ही ५.कुछ क्षेपण करें तब यत्नपूर्वक क्षेपण करते हैं-इस प्रकार निष्प्रमाद प्रवर्तते हैं तब संयम शुद्ध पलता है इसलिये पाँच समिति रूप प्रव त्ति कही है। ऐसे संयमाचरण चारित्र की प्रव त्ति का वर्णन किया।।३७।। उत्थानिका 崇崇崇崇崇榮樂崇崇明崇崇勇兼勇兼崇崇勇兼業助兼勇 柴柴業%崇崇崇崇業乐業業助兼功兼業助業樂業先崇勇崇 अब आचार्य निश्चय चारित्र को मन में धारण कर ज्ञान का स्वरूप कहते हैं और ज्ञानस्वरूप जो आत्मा है उसके अनुभवन का उपदेश करते हैं : भव्वजणबोहणत्थं जिणमग्गे जिणवरेहिं जह भणियं। णाणं णाणसरूवं अप्पाणं तं वियाणेहि।। ३8।।। जिनमग में जिनवर भव्यजन के, बोधहित जैसा कहा। उस ज्ञान एवं ज्ञान रूपी, आतमा को जान तू ।।३8 ।। अर्थ जिनमार्ग में जिनेश्वर देव ने भव्य जीवों के संबोधने के लिये जैसा ज्ञान और ज्ञान का स्वरूप कहा है उस ज्ञानस्वरूप आत्मा को हे भव्य जीव ! तू जान। भावार्थ ज्ञान को और ज्ञान के स्वरूप को अन्यमती अनेक प्रकार से कहते हैं, वैसा ज्ञान 乐器乐乐業统業坊業垢業乐業个项業乐業乐業坊業垢業乐業乐
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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