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अष्ट पाहड़
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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उत्थानिका
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आगे पंचम 'अपरिग्रह महाव्रत की भावना' कहते हैं :अपरिग्गह समणुण्णेसु सद्द परिस रस रूव गंधेसु। रायद्दोसाईणं परिहारो भावणा होति।। ३६।। रस, फरस, रूप अरु शब्द, गंध, मनोज्ञ वा अमनोज्ञ में। जो राग-रुष परिहार पंचम, व्रत की पाँचों भावना ।।३६ ।।
अर्थ १.शब्द, २.स्पर्श, ३.रस, ४.रूप और ५.गन्ध-ये पाँच इन्द्रियों के विषय सो कैसे 'समनोज्ञ' अर्थात मनोज्ञता से सहित और अमनोज्ञ-ऐसे दोनों में राग-द्वेष आदि का न करना-परिग्रहत्याग व्रत की ये पाँच भावना हैं।
भावार्थ पाँच इन्द्रियों के जो विषय स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द हैं, उनमें इष्ट-अनिष्ट बुद्धि रूप राग-द्वेष जो न करे तब अपरिग्रह व्रत दढ़ रहता है इसलिये ये पाँच भावना अपरिग्रह महाव्रत की कही हैं।।३६ ।।
- उत्थानिका
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आगे ‘पाँच समितियों' को कहते हैं :इरिया भासा एसण जा सा आदाण चेव णिक्खेवो। संजमसोहिणिमित्तं खंति जिणा पंच समिदीओ।। ३७।। ईर्या व भाषा, एषणा, आदान अरु निक्षेप हैं। ये पाँच समिति होती संयम, शुद्धिहित जिन ने कही।।३७ ।।
अर्थ १.ईर्या, २.भाषा, ३.एषणा पुनः ४.आदान और ५.निक्षेप-ऐसी ये पाँच समिति