SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्ट पाहड़ate स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द Lao DoG 樂樂养崇崇崇崇崇崇勇攀事業兼藥藥勇兼業助兼帶男 भावार्थ मुनियों के वसतिका में बसना और आहार लेना-ये दो प्रव त्ति अवश्य होती हैं सो लोक में इन ही के निमित्त अदत्त का ग्रहण होता है। मुनि बसते हैं तो ऐसी जगह बसते हैं जहाँ अदत्त का दोष न लगे। पुनः आहार ऐसा लेते हैं जिसमें अदत्त का दोष न उत्पन्न हो तथा इन दोनों की प्रव त्ति में साधर्मी आदि से विसंवाद न उपजे-इस प्रकार ये पाँच भावना कही हैं, इनके होते अचौर्य महाव्रत दढ़ रहता है ||३४|| उत्थानिका आगे 'ब्रह्मचर्य महाव्रत की भावना' कहते हैं :महिलालोयण पुव्वरइ सरण संसत्तवसहि विकहाहिं। पुट्टियरसेहिं विरओ भावण पंच वि तुरियम्मि।। ३५।। महिलानिरीक्षण, पूर्वरतिस्म ति, वसति संसक्त वास अरु। विकथा व पौष्टिक रस विरति, पंच भावना व्रत चतुर्थ की ।।३५ ।। अर्थ १.स्त्रियों का 'आलोकन' अर्थात् उन्हें राग सहित देखना, २.पूर्व में किये भोगों का स्मरण करना, ३.स्त्रियों से संसक्त वसतिका में बसना, ४.स्त्रियों की कथा करना और ५.पुष्टिकारक रस का सेवन करना-इन पाँचों से विकार उत्पन्न होता है इसलिये इनसे विरक्त रहना-ये पाँच ब्रह्मचर्य महाव्रत की भावना हैं। भावार्थ काम विकार के निमित्तों से ब्रह्मचर्य व्रत का भंग होता है सो स्त्रियों को रागभाव से देखना इत्यादि जो निमित्त कहे, उनसे विरक्त रहना, उनका प्रसंग नहीं करना, इससे ब्रह्मचर्य महाव्रत दढ़ रहता है।।३५।। 崇崇崇崇明崇業樂業先業業%崇崇勇兼業助兼崇勇步骤 टि0-1. श्रु0 टी0' (सु०)-न्यागार और विमोचितावास में रहने से परिग्रह में ताष्णा का अभाव होता है। परोध और एषणाद्धि से भी अचौर्य महाव्रत निर्मल होता है। सहधर्मी के साथ विवाद नहीं करने से जिनवचनों का व्याघात नहीं होता।' 崇明崇岳崇明崇明崇明藥業集聚禁禁禁禁禁崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy