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________________ 卐卐業卐業業卐業業業業業業業卐業卐 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्टपाहुड़ उत्थानिका आगे 'पाँच इन्द्रियों के संवरण का स्वरूप' कहते हैं : स्वामी विरचित अमणुणे य मणुणे सजीवदव्वे अजीवदव्वे य । ण करेइ रायदो पंचिंदियसंवरो भणिओ ।। २१ । । अमनोज्ञ और मनोज्ञ द्रव्य, सजीव में वा अजीव में। नहि करे राग अरु द्वेष कहते, पंचेन्द्रिय संवर इसे । २१ ।। अर्थ अमनोज्ञ तथा मनोज्ञ ऐसे जो पदार्थ, जिनको लोक अपना माने ऐसे सजीव द्रव्य तो स्त्री-पुत्रादि और अजीव द्रव्य धन-धान्य आदि सब पुद्गल द्रव्य उनमें राग-द्वेष का न करना सो पाँच इन्द्रियों का संवर कहा है। भावार्थ इन्द्रियगोचर जो जीव-अजीव द्रव्य हैं जो कि इन्द्रियों के ग्रहण में आते हैं, उनमें यह प्राणी किसी को इष्ट मानकर राग करता है और किसी को अनिष्ट मानकर द्वेष करता है, सो ऐसा चारित्र होता है ।।२१।। राग-द्वेष मुनि नहीं करते हैं, उनके संयमाचरण उत्थानिका आगे 'पाँच व्रतों का स्वरूप' कहते हैं : 卐卐卐卐業 हिंसाविरइ अहिंसा असच्चविरइ अदत्तविरई य । तुरियं अबंभविरई पंचम संगम्मि विरई य ।। ३० ।। हिंसा से विरति अहिंसा व्रत, झूठ, चोरी से विरती अरु । चौथा अब्रह्म से विरति, पंचम परिग्रह से विरति है । । ३० ।। ३-३२ *糕糕糕縢糕糕糕糕縢糕糕糕糕糕糕 卐糕糕卐卐
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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