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________________ 卐糕卐糕卷卐業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्टपाहुड़ स्वामी विरचित एवं सावयधम्मं संजमचरणं उ देसियं सयलं । सुद्धं संजमचरणं जइधम्मं णिक्कलं इस भाँति श्रावकधर्म, संयमचरण है देशित सकल । यतिधर्म संयमचरण निष्कल, शुद्ध अब मैं कहूँगा ।। २७ ।। वोच्छे ।। २७ । । अर्थ 'एवं' अर्थात् इस प्रकार श्रावक धर्मस्वरूप संयमाचरण तो कहा। कैसा है यह—'सकल' अर्थात् कला सहित है, एकदेश को कला कहते हैं । अब यति का धर्मस्वरूप जो संयमाचरण है उसे कहूँगा - ऐसी आचार्य ने प्रतिज्ञा की है । कैसा है यतिधर्म - शुद्ध है, निर्दोष है, जिसमें पापाचरण का लेश भी नहीं है । पुनः कैसा है—'निकल' अर्थात् कला से निष्क्रांत है, सम्पूर्ण है, श्रावकधर्म के समान एकदेश नहीं है ।। २७ ।। उत्थानिका आगे 'यतिधर्म की सामग्री' कहते हैं पंचिंदियसंवरणं पंचवया पंचविंसकिरियासु । पंचसमिदि तयगुत्ती संजमचरणं णिरायारं ।। २8 ।। पंचेन्द्रि संवर, पाँच व्रत, पच्चीस किरिया युक्त है। त्रय गुप्ति, समिति पंच यह, संयमचरण निरगार है ।। २8 ।। 【卐卐 - अर्थ पाँच इन्द्रियों का संवरण, 1 पाँच व्रत जो कि पच्चीस क्रियाओं का सद्भाव होने पर होते हैं, पाँच समिति और तीन गुप्ति-ऐसा निराकार संयमाचरण चारित्र होता है । । २8 ।। टि0- 1. 'श्रु0 टी0' में लिखा है- 'पंचेन्द्रियसंवरणं अर्थात् कूर्मवत्संकोचनं। जैसे विपत्ति देख कछुआ अपने सारे अवयवों को संकुचित कर पीठ के नीचे कर लेता है वैसे ही मुनि भी अपनी स्पेनादि इन्द्रियों को सब ओर से हटाकर आत्मस्वरूप में संकुचित कर लेते हैं । ' ३-३१ 【卐糕糕 米糕卐卐卐業業業業業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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