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अष्ट पाहुड़ate
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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तब तक गुणश्रेणी निर्जरा नहीं होती। वहाँ जो निर्जरा होती है वह संख्यात के गुणकार रूप होती है इसलिये संख्यातगुण और असंख्यातगुण-ऐसे दोनों वचन
कहे। कर्म तो संसार अवस्था है तब तक हैं, उनमें दुःख का कारण मोहकर्म है, | उसमें मिथ्यात्व कर्म प्रधान है सो सम्यक्त्व के होने पर मिथ्यात्व का तो अभाव ही
हुआ और चारित्रमोह दुःख का कारण है सो यह भी जब तक है तब तक उसकी निर्जरा करता है-इस प्रकार अनुक्रम से दुःख का क्षय होता है। संयमाचरण के होने पर सब दुःखों का क्षय होगा ही। यहाँ सम्यक्त्व का माहात्म्य ऐसा है कि सम्यक्त्वाचरण के होने पर संयमाचरण भी शीघ्र ही होता है इसलिये सम्यक्त्व को मोक्षमार्ग में प्रधान जानकर इसी का वर्णन पहिले किया है।।२०।।
उत्थानिका
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आगे "संयमाचरण चारित्र' को कहते हैं :दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे णिराया। सायारं सग्गंथे परिग्गहरहियस्स खलु णिरायारं।। २१।।
सागार निर आगार भेद है, द्विविध संयमचरण के। सागार परिग्रह सहित के, उस रहित के निरगार हो।।२१।।
अर्थ संयमाचरण चारित्र है सो दो प्रकार है-१.साकार और २.निराकार| वहाँ
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टि0-1. यहाँ 'पं0 जयचन्द जी' की मूल प्रति' के अनुसार साकार, निराकार' पाठ ही दिए गए हैं।
आगे भी गाथा 22, 23, एवं 28 में अर्थ, भावार्थ आदि में सर्व साकार, निराकार' ही पाठ हैं। प्राकृत कोष में 'सायार' |ब्द का अर्थ 'अपवादयक्त' एवं 'णिरायार' का अर्थ 'अपवादरहित-निर्दोष' किया है अत: 'अपवादयुक्त संयमाचरण' को साकार संयमाचरण चारित्र' और 'अपवादरहित' को निराकार संयमाचरण चारित्र कहते हैं। 'मूल प्रति' को छोड़कर 'मु० प्रति व अन्य भी सारी ही टीकाओं में' 'साकार, निराकार' पाठ के स्थान पर सर्व 'सागार' (अर्थ-गाहयक्त गाहस्थ) व निरागार' (अर्थ-मुनि) पाठ है और जिनागम में संयमाचरण चारिक के भेदों में सर्व इन दोनों ही पाठों के प्रचलित होने पर भी यहाँ मान्य पं0 जी' की 'मूल प्रति' का ही अनुसरण किया गया है।
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