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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्टपाहुड़
ये तीनों ही तो भाव होते, मोहविरहित जीव के ।
स्वामी विरचित
निजगुण का आराधक हुआ, परिहरता शीघ्र वह कर्म को । । ११ । ।
अर्थ
ये पूर्वोक्त सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्र तीन भाव हैं, वे निश्चय से 'मोह' अर्थात्
का नाश करता है ।
मिथ्यात्व उससे जो रहित हो उस जीव के होते हैं, तब यह जीव अपना 'निजगुण'
जो शुद्ध दर्शनज्ञानमयी चेतना उसकी आराधना करता हुआ थोड़े ही काल में कर्म
भावार्थ
निजगुण के ध्यान से शीघ्र ही केवलज्ञान उपजाकर मोक्ष पाता है। 199 ।।
उत्थानिका
आगे इस सम्यक्त्वाचरण चारित्र के कथन का संकोच करते हैं :
संखिज्जमसंखिज्जं गुणं च संसारिमेरुमित्ता णं ।
सम्मत्तमणुचरंता करंति दुक्खक्खयं धीरा ।। २० ।। कर संख्यासंख्य गुण निर्जरा, संसार मेरु कर्म की।
दुःखों को नाशें धीर वे, सम्यक्त्व आचरते हुए । २० ।।
अर्थ
सम्यक्त्व का आचरण करते धीर पुरुष हैं वे संख्यातगुणी तथा असंख्यातगुणी
कर्मों की निर्जरा करते हैं और कर्मों के उदय से हुआ जो संसार का दुःख
उसका नाश करते हैं। कैसे हैं कर्म-संसारी जीवों की 'मेरु' अर्थात् मर्याद मात्र हैं, सिद्ध हुए पीछे कर्म नहीं हैं।
भावार्थ
इस सम्यक्त्व का आचरण होने पर प्रथम काल में जो गुणश्रेणी निर्जरा होती है
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वह तो असंख्यात के गुणकार रूप है। पीछे जब तक संयम का आचरण नहीं होता
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