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________________ 懟懟懟業業業糝業業業 आचार्य कुन्दकुन्द प्रकार भावार्थ निर्ग्रथ होकर दीक्षा ले संयमभाव से भली प्रकार तप में प्रवर्ते तब संसार का मोह है । । १६ । । * अष्टपाहुड़ दूर हो और वीतरागपना हो, तब निर्मल धर्मध्यान व शुक्लध्यान होते हैं और इस ध्यान से केवलज्ञान उत्पन्न होकर मोक्ष प्राप्त होता है इसलिये ऐसा उपदेश उत्थानिका आगे कहते हैं कि ये जीव अज्ञान और मिथ्यात्व के दोष से मिथ्यामार्ग में प्रवर्तते हैं' मिच्छादंसणमग्गे 1 मलिणे अण्णाणमोहदोसेहिं । बज्झति मूढ़जीवा मिच्छत्ताबुद्धिदोसेण ।। १७।। अज्ञान, मोह के दोष से, दूषित है, मिथ्या मार्ग जो । वर्तते उसमें मूढ़जन, मिथ्यात्व अबुद्धि के उदय से ।।१७।। स्वामी विरचित टि0- 1. 'श्रु0 टी0' में इस गाथा का अर्थ किया है- 'मूढ़ जीव मिथ्यात्व और अज्ञान के उदय से मलिन से आच्छादित कर लेता है।' मिथ्यामार्ग में प्रवत्ति कर अज्ञान और मोह दोष के द्वारा अपने को बाँध लेता है अर्थात् पापों 'म0 टी0' में गाथा की प्रथम पंक्ति का अर्थ है- 'अज्ञान अर्थात् मिथ्याज्ञान और मोह अर्थात् मिथ्याचारि इनके दोषों से मलिन मिथ्यादनि के मार्ग में... ।' गाथा की द्वितीय पंक्ति के पाठ के स्थान पर 'वज्जंति ( वर्जयन्ति ) मूढजीवा सम्मत्तबुद्धिउदएण'ये पाठ भी अन्यत्र मिलता है जिसका अर्थ है कि 'मूढ़ जीव सम्यग्दन और सम्यग्ज्ञान के उदय होने पर मिथ्यादनि के मार्ग को छोड़ देते हैं । ' द्वितीय पंक्ति में आए हुए मिच्छत्ताबुद्धिदोसेण' पाठ के स्थान पर मु0 व अन्य प्रतियों में' भी 'मिच्छताबुद्धिउदएण' पाठ मिलता है और माननीय पं0 जी' ने भी अपनी टीका में 'मिथ्यात्व और अबुद्धि के उदय से ऐसा इस पाठ का अनुसारी अर्थ ही किया है । 'वी() प्रति' में भी 'मिच्छत्ताबुद्धिउदएण ' पाठ ही उपलब्ध है परन्तु उसका अर्थ वहाँ मिथ्यात्व और अबुद्धि के उदय से' नहीं करके 'मिथ्यात्व की बुद्धि के उदय से' किया है। 卐 【卐卐業 * 糝糕糕糕糕糕糕糕糕糕糕糕糕縢
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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