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अष्ट पाहड़ate
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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लह शुद्ध समकित ज्ञान अरु, तज मिथ्या अरु अज्ञान को। पाकर अहिंसा धर्म को, तज अधम हिंसारम्भ को ।।१५।।
अर्थ आचार्य कहते हैं कि हे भव्य ! तू १. ज्ञान के होते तो अज्ञान का वर्जन कर, त्याग कर, २. विशुद्ध सम्यक्त्व के होते मिथ्यात्व का त्याग कर तथा ३ अहिंसा लक्षण धर्म के होते आरंभ सहित मोह का परिहार कर।
भावार्थ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति होने पर फिर मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र में मत प्रवर्ता-ऐसा उपदेश है।।१५।।
MINS उत्थानिका
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आगे फिर उपदेश करते हैं :पव्वज्ज संगचाए पयट्ट सुतवे सुसंजमे भावे। होइ सुविसुद्धझाणं णिम्मोहे वीयरायत्ते।। १६ ।।
गह संग बिन दीक्षा, सुसंयमयुत सुतप में प्रव ति कर। जिससे हो निर्मोह विगतरागी, तेरे सुविशुद्ध ध्यान हो।।१६ । ।
अर्थ हे भव्य ! तू 'संग' अर्थात् परिग्रह का त्याग जिसमें हो ऐसी दीक्षा ग्रहण कर और भली प्रकार संयमस्वरूप भाव के होते सम्यक प्रकार तप में प्रवर्तन कर जिससे तेरे मोह रहित वीतरागपना होते निर्मल धर्म-शुक्ल ध्यान हो।
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टि0-1. 'श्रु0 टी0' में लिखा है कि सांसारिक भोगों की आकांक्षा से रहित होकर केवल कर्म निर्जरा के उद्देय से जो
तप होता है वह सुतप कहलाता है और ऐसा सुतप उत्तम संयम भाव के प्रगट होने पर ही हो सकता है क्योंकि असंयमी पुरुष के मासोपवासादि से युक्त होने पर भी सुतप का सद्भाव नहीं हो सकता। इसी प्रकार सुविद्ध ध्यान भी निर्मोह अर्थात् पुत्र स्त्र, मित्र तथा धन आदि के व्यामोह से रहित पुरुष के ही होता है परन्तु जो
पुरुष पुत्रदि के मोह से सहित है, उसके विष्टि धर्मध्यान एवं क्लध्यान का लेट भी नहीं हो सकता।' 西崇明崇崇明崇明崇明崇明黨 - -騰騰崇崇崇明崇明崇明