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अष्ट पाहुड़Marat
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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जो ज्ञानमार्ग से सुदर्शन की, करे श्रद्धा सेवा अरु। उत्साह, शंसा, भावना, नहिं तजे जिनसम्यक्त्व को ।।१४ ।।
अर्थ 'सुदर्शन' अर्थात सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप सम्यकमार्ग उसमें १. उत्साहभावना' अर्थात् उसे ग्रहण करने का उत्साह और बारम्बार चिन्तवनरूप भाव, २. संप्रशंसा' अर्थात मन-वचन-काय से भला जान स्तुति करना, ३.'सेवा' अर्थात् उपासना-पूजनादि करना और ४.श्रद्धा करना-इस प्रकार ज्ञानमार्ग से यथार्थ जानकर इन्हें करता हुआ पुरुष है वह जिनमत की श्रद्धा रूप जो सम्यक्त्व है उसको नहीं छोड़ता है।
भावार्थ जिनमत में उत्साह, भावना, प्रशंसा, सेवा और श्रद्धा जिसके हो वह सम्यक्त्व से च्युत नहीं होता है।।१४।।
उत्थानिका
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आगे अज्ञान, मिथ्यात्व और कुचारित्र के त्याग का उपदेश करते हैं :
अण्णाणं मिच्छत्तं वज्जहि णाणे विसुद्धसम्मत्ते। अहमो हिंसारम्भं परिहर धम्मे अहिंसाए।। १५ ।।
टि0-1.वी0 प्रति' में गाथा 15 की द्वितीय पंक्ति के 'अह मोहं सारम्भं परिहर धम्मे अहिंसाए' पाठ के
स्थान पर ये बड़ा कीमती पाठ उपलब्ध हुआ-'अहमो हिंसारम्भं परिहर धम्मे अहिंसाए' अर्थात् 'तू अहिंसालक्षण धर्म के होते अधम-बुरे हिंसा के आरम्भ को छोड़।' यह 'आ0 कुंदकुंद' द्वारा रचित मल पाठ प्रतीत होता है क्योंकि इसका अर्थ अत्यन्त प्रकरणसंगत है परन्तु कालक्रम में 'अहमो' |ब्द 'अह-मो' हुआ और हिंसारम्भ' के 'हि' की 'इ' की मात्र का लोप होकर यह 'हं' बनकर 'मो' के साथ जुड़कर एक नया |ब्द 'मोह' बना और 'सारम्भं' उधर रहकर 'अह मोहं सारम्भं' पद | की परम्परा चल गई। माननीय ‘पं0 जयचंद जी' ने इसी पद के अनुसार अर्थ किया है अत: मूल में यहाँ यही पाठ देकर दूसरा युद्ध पाठ उसी के नीचे कोष्ठक में छोटे अक्षरों में दिया है। यह अत्यंत मुख्य टिप्पण है।
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