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आचार्य कुन्दकुन्द
जाता है।
* अष्टपाहुड़
आगे प्रश्न उत्पन्न होता है कि ऐसे सम्यक्त्वाचरण चारित्र के चिन्ह क्या हैं जिनसे उसको जाना जाये ?' उसके उत्तर रूप गाथा में सम्यक्त्व के चिन्ह
उत्थानिका
स्वामी विरचित
है ।
कहते हैं
-
वच्छल्लं विणएण य अणुकंपाए सुदाणदच्छाए । मग्गगुणसंस
अवगूहण रक्खणाए य ।। ११ । ।
एएहिं लक्खणेहिं य लक्खिज्जइ अज्जवेहिं भावेहिं ।
जीवो आराहतो जिणसम्मत्तं अमोहेण' ।। १२ ।। जुगमं । ।
हो विनय, वत्सलता व अनुकम्पा, सुदान में दक्ष जो ।
हो मार्ग के गुण की प्रशंसा, ऊपगूहन, रक्षणा ।। ११ । ।
अर्थ
जिनदेव की श्रद्धा जो सम्यक्त्व उसको 'मोह' अर्थात् मिथ्यात्व उससे रहित
इन लक्षणों व इन युत आर्जव, भाव से जाता लखा ।
बिन मोह जिनसम्यक्त्व को आराधता है जीव जो । । १२ ।।
आराधता हुआ जीव है सो इतने 'लक्षण' अर्थात् चिन्ह उनसे लक्षित होता है, जाना
सम्यग्द ष्टि के लक्षण :
(१) वत्सलभाव- प्रथम तो धर्मात्मा पुरुषों से जिसके वत्सलभाव हो, जैसी तत्काल की
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प्रसूतिवान गाय को बछड़े से प्रीति होती है वैसी धर्मात्मा से प्रीति हो - एक तो यह चिन्ह
टि0 - 1. इस पंक्ति का अर्थ करते हुए 'श्रु0 टी0' में लिखा है कि 'सम्यक्त्व रूप परिणाम अत्यन्त सूक्ष्म
हैं अत: उन्हें अमोह-अज्ञान से रहित, विचक्षण चतुर मनुष्य ही जान सकता है' अथवा प्राकृत
में 'ह' का 'घ' ' जाने के कारण 'अमोह' का पाठांतर 'अमोघ' है सो 'अमोघ' अर्थात् 'सफल
जन्म वाला मनुष्य ही सम्यग्दष्टि जीव को जान सकता है।'
३-१६
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