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अष्ट पाहुड़Marat
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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(२) विनय-सम्यक्त्वादि गुणों से जो अधिक हो उसकी विनय-सत्कारादि जिसके हो ऐसी विनय-एक यह चिन्ह है। (३) अनुकम्पा-दुःखी प्राणी देख करुणाभाव स्वरूप अनुकम्पा जिसके हो एक यह चिन्ह है तथा वह अनुकम्पा कैसी हो-भली प्रकार दान से युक्त हो। (४) मार्गप्रशंसा-निग्रंथस्वरूप मोक्षमार्ग की प्रशंसा से जो सहित हो-एक यह चिन्ह है। यदि मार्ग की प्रशंसा न करता हो तो ज्ञात होता है कि इसके मार्ग की श्रद्धा द ढ़ नहीं है। (५) उपगृहन-धर्मात्मा पुरुषों के यदि कर्म के उदय से दोष उत्पन्न हो तो उसको विख्यात न करे ऐसा उपगूहन भाव हो-एक यह चिन्ह है। (६) रक्षणा–धर्मात्मा को मार्ग से चिगता जान उसकी स्थिरता करे ऐसा रक्षणा नामक चिन्ह है, तथा इसको स्थितिकरण भी कहते हैं। (७) आर्जवभाव-इन सब चिन्हों को सत्यार्थ करने वाला एक आर्जवभाव है क्योंकि निष्कपट परिणाम से ये सारे चिन्ह सत्यार्थ होते हैं। इतने लक्षणों से सम्यग्द ष्टि जाना जाता है।
भावार्थ मिथ्यात्व कर्म के अभाव से जीव का सम्यक्त्व भाव प्रकट होता है सो वह भाव तो सूक्ष्म है, छद्मस्थ के ज्ञानगोचर नहीं है और उसके बाह्य चिन्ह सम्यग्द ष्टि के प्रकट होते हैं, उनसे सम्यक्त्व हुआ जाना जाता है। जो वात्सल्य आदि भाव कहे वे आपके तो अपने अनुभवगोचर होते हैं और अन्य के उसकी वचन-काय की क्रिया से जाने जाते हैं, उनकी परीक्षा-जैसे अपने क्रिया विशेष हों वैसे अन्य के उनकी परीक्षा से जाने जाएं ऐसा व्यवहार है। यदि ऐसा न हो तो सम्यक्त्व के व्यवहार मार्ग का लोप हो परन्तु व्यवहारी प्राणी को व्यवहार ही का आश्रय कहा है, परमार्थ सर्वज्ञ जानते हैं।।११-१२।।
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उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'जो ऐसे कारणों से सहित हो वह सम्यक्त्व को छोड़ता है :
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