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________________ 【卐卐卐業業業業業業卐 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्टपाहुड़ उनकी अवज्ञा करना सो अनुपगूहन है, इसके होने पर धर्म से छूट जाना होता है। ६. अस्थितिकरण-धर्मात्मा पुरुषों को कर्म के उदय के वश से धर्म से चिगते देख उनकी स्थिरता नहीं करना सो अस्थितिकरण है, इसके होने पर जाना जाता है कि इसको धर्म से अनुराग नहीं है और अनुराग का न होना सो सम्यक्त्व में दोष है। ७. अवात्सल्य-धर्मात्मा पुरुषों से विशेष प्रीति न करना सो अवात्सल्य है, इसके होने पर सम्यक्त्व का अभाव प्रकट सूचित होता है । स्वामी विरचित ८. अप्रभावना-धर्म का माहात्म्य शक्ति के अनुसार प्रकट नहीं करना सो अप्रभावना है, इसके होने पर ज्ञात होता है कि इसके धर्म के माहात्म्य की श्रद्वा द नहीं हुई है। इस प्रकार सम्यक्त्व के ये आठ दोष मिथ्यात्व के उदय से होते हैं। जहाँ ये तीव्र होते हैं वहाँ तो मिथ्यात्व प्रकृति का उदय एवं सम्यक्त्व का अभाव द्योतित करते हैं और जहाँ कुछ मंद अतिचार रूप होते हैं वहाँ सम्यक् प्रकृति नामक मिथ्यात्व की प्रकृति के उदय से होते हैं सो अतिचार कहलाते हैं, वहाँ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का सद्भाव होता है । परमार्थ से विचार करें तब अतिचार त्यागने ही योग्य हैं। इनके होने पर अन्य भी मल प्रकट होते हैं वहाँ तीन तो ये मूढ़ताएँ हैं- १. देवमूढ़ता २. पाखंडीमूढ़ता एवं ३. लोकमूढ़ता । १. देवमूढ़ता-जहाँ कुछ वर की वांछा से सरागी देवों की उपासना करना एवं उनकी पाषाणादि में स्थापना करके पूजना । २. पाखंडीमूढ़ता - जहाँ परिग्रह, आरम्भ एवं हिंसादि सहित पाखंडी वेषधारियों का सत्कार - पुरस्कारादि करना । ३. लोकमूढ़ता - जहाँ अन्य मतवालों के उपदेश से अथवा स्वयमेव बिना विचारे कुछ प्रवत्ति करने लग जाना जैसे १. सूर्य को अर्घ देना, २. ग्रहण में स्नान करना, ३ . संक्रान्ति में दान देना, ४. अग्नि का सत्कार करना, ५. देहली, घर को पूजना, ६. गाय की पूँछ को नमस्कार करना, ७. गाय के मूत्र को पीना, 8 रत्न, घोड़ा आदि वाहन, पथ्वी, व क्ष, शस्त्र एवं पर्वत आदि का सेवन-पूजन करना, 9. नदी, समुद्र आदि को तीर्थ मानकर उनमें स्नान करना, १०. पर्वत से गिरना एवं ११. अग्नि में प्रवेश करना इत्यादि जानना । 卐卐卐業業卐業 ३-११ 卐糕糕卐 糕蛋糕蛋糕糕蛋糕蛋糕糕蛋糕蛋糕糕糕
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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