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अष्ट पाहड़ate
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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एवं चिय णाऊण य सव्वे मिच्छत्तदोस संकाई। परिहर सम्मत्तमला जिणभणिया तिविहजोएण।। ६ ।।
यों जानकर मिथ्यात्व के, जो शंका आदिक दोष सब । सम्यक्त्व के मल कहे जिन, मन-वचन-काय से छोड़िये।।६।।
अर्थ ऐसे पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्वाचरण चारित्र को जानकर मिथ्यात्व कर्म के उदय से होने वाले जो शंकादि दोष, जो कि सम्यक्त्व को अशुद्ध करने वाले मल हैं और जिन्हें जिनदेव ने कहा है, उनको मन-वचन-काय से हुए जो तीन प्रकार के योग उनसे छोड़ना।
भावार्थ शंकादि दोष जो सम्यक्त्व के मल हैं उनको त्यागने पर सम्यक्त्वाचरण चारित्र शुद्ध होता है इसलिए उनका त्याग करने का उपदेश जिनदेव ने किया है। वे दोष क्या हैं सो कहते हैं :१. शंका-जिनवचन में जो वस्तु का स्वरूप कहा है उसमें संशय करना सो तो शंका है, इसके होने पर सात भय के निमित्त से स्वरूप से चिग जाना वह भी शंका
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२. कांक्षा–भोगों की अभिलाषा सो कांक्षा है, इसके होने पर भोगों के लिये स्वरूप से भ्रष्ट हो जाता है। ३. जुगुप्सा-वस्तु के धर्म में ग्लानि करना सो जुगुप्सा है, इसके होने पर धर्मात्मा पुरुषों की पूर्व कर्म के उदय से बाह्य मलिनता देखकर मत से चिगना होता है। ४. मूढ़द ष्टि-देव, धर्म, गुरु तथा लौकिक कार्यों में मूढ़ता अर्थात् उनका यथार्थ स्वरूप न जानना सो मूढ़द ष्टि है, इसके होने पर अन्य लौकिकजनों के द्वारा माने हुए जो सरागी देव, हिंसा धर्म, सग्रंथ गुरु तथा लोगों के द्वारा बिना विचार किये माने हुए जो अनेक क्रिया विशेष उनकी विनय आदि की प्रवत्ति करने से यथार्थ मत से भ्रष्ट होता है। ५. अनुपगूहन-धर्मात्मा पुरुषों में कर्म के उदय से कुछ दोष उत्पन्न हुआ देखकर
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