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________________ *業業業業業業業業業業業業出版業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्टपाहुड़ अर्थ जो जानता है वह ज्ञान है तथा जो देखता है वह दर्शन है-ऐसा कहा है तथा ज्ञान और दर्शन के समायोग से चारित्र होता है I स्वामी विरचित भावार्थ जो जाने वह तो ज्ञान और जो देखे- श्रद्धान करे वह दर्शन और दोनों का एकरूप होकर स्थिर होना चारित्र है | |३|| उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'जो ये तीन भाव जीव के हैं उनकी शुद्धि के लिए चारित्र दो प्रकार का कहा है' : एए तिहि वि भावा हवंति जीवस्स अक्खयामेया । तिन्हं पि सोहणत्थे जिणभणियं दुविहचारितं ।। ४ ।। अक्षय अनन्त ये ज्ञान आदि, भाव तीनों जीव के । इन सबकी शुद्धि के लिए, चारित्र द्वय जिनवर कहा ।।४।। अर्थ ये ज्ञान आदि जो तीन भाव कहे वे अक्षय और अनंत जीव के भाव हैं, इनको शोधने के लिए जिनदेव ने दो प्रकार का चारित्र कहा है । भावार्थ जानना, देखना और आचरण करना-ये तीन भाव जीव के अक्षय अनंत हैं। 'अक्षय' अर्थात् जिनका नाश नहीं और 'अमेय' अर्थात् अनंत- जिनका पार नहीं । सब लोकालोक को जानने वाला तो ज्ञान है, ऐसा ही दर्शन है और ऐसा ही चारित्र है तथापि घातिकर्मों के निमित्त से अशुद्ध मिथ्यादर्शन - ज्ञान - चारित्र रूप है इसलिए श्री जिनदेव ने इनके शुद्ध करने के लिये इनके चारित्र का आचरण करना दो प्रकार का कहा है । । ४ । । 卐卐卐卐業 ३-८ 華卐糕卐卐業業卐業業 卐糕糕卐卐
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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