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________________ 專業出業業業業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्टपाहुड़ और कैसे हैं-सर्वज्ञ हैं, सब लोकालोक स्वरूप चराचर पदार्थों को जो प्रत्यक्ष जानते हैं वे सर्वज्ञ होते हैं । हैं । और कैसे हैं- 'सर्वदर्शी' अर्थात् सब पदार्थों को देखने वाले हैं। और कैसे हैं-निर्मोह हैं, मोहनीय नामक कर्म की प्रधान प्रकृति जो मिथ्यात्व उससे रहित हैं। और कैसे हैं - वीतराग हैं, विशेष रूप से जिसके राग दूर हुआ हो वह वीतराग स्वामी विरचित होता है सो जिनके चारित्रमोह कर्म के उदय से जो होते हैं वे राग-द्वेष भी नहीं और कैसे हैं- त्रिजगद्वंद्य हैं, तीन जगत के जो प्राणी तथा उनके स्वामी इन्द्र, धरणेन्द्र एवं चक्रवर्ती उनसे जो वंदन के योग्य । ऐसा तो 'अरिहंत' पद को विशेष्य और 'अन्य पद' को विशेषण करके अर्थ किया है। तथा 'सर्वज्ञ' पद को विशेष्य करके 'अन्य पदों' को विशेषण करने पर भी अर्थ होता है और वहाँ 'अरिहंत भव्य जीवों से पूज्य हैं - ऐसा विशेषण होता है । चारित्र कैसा है—सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक् चारित्र - ये तीन जो आत्मा के परिणाम हैं उनकी शुद्धि का कारण है । चारित्र के अंगीकार होने पर सम्यग्दर्शनादि परिणाम निर्दोष होते हैं । T और कैसा है चारित्र - मोक्ष के आराधन का कारण है। ऐसा जो चारित्र है उसका 'पाहुड़' अर्थात् प्राभ त ग्रंथ कहूँगा - ऐसी आचार्य ने मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा की है । उत्थानिका आगे 'सम्यग्दर्शनादि तीन भावों का स्वरूप' कहते हैं - जं जाइतं णाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं भणियं । णाणस्स पिच्छयस्स य समवण्णा होइ चारित्तं ।। ३।। जो जानता वह ज्ञान है, जो देखता दर्शन है वो । इन दोनों के समायोग से, चारित्र होता है अहो ! ।। ३ ।। 卐卐卐業 ३-७ 米糕卐卐卐業業卐業業業生 卐糕糕卐卐
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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