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अष्ट पाहुड़ate
स्वामी विरचित
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आचार्य कुन्दकुन्द
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उत्थानिका
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यहाँ श्री कुन्दकुन्द आचार्य प्रथम ही मंगल के लिए इष्टदेव को नमस्कार करके
__'चारित्रपाहुड़ कहने की प्रतिज्ञा' करते हैं :सव्वण्हु सव्वदंसी णिम्मोहा वीयराय परमेट्ठी। वंदित्तु तिजगवंदा अरहता भव्वजीवेहिं।। १।। णाणं दंसण सम्म चारित्तं सोहिकारणं तेसिं। मुक्खाराहणहेउं चारित्तं पाहुडं वोच्छे।। २।। जुगमं ।।
जो विगतराग विमोह जिन, परमेष्ठी हैं सर्वज्ञ हैं। उन त्रिजगवंदित भव्यपूजित, अर्हत की कर वंदना ।।१।। वर्णन करूँ चारित्रपाहुड़, मोक्षाराधन हेतु जो। सम्यक् जो दर्शन ज्ञान चारित, शुद्धि का कारण है वो।।२।।
अर्थ आचार्य कहते हैं कि 'मैं अरिहंत परमेष्ठी की वंदना करके 'चारित्रपाहुड़' को कहूँगा।
कैसे हैं अरिहंत परमेष्ठी-'अरिहंत' ऐसा प्राकृत अक्षर की अपेक्षा तो ऐसा अर्थ है-१. 'अकार' आदि अक्षर से तो 'अरि' ऐसा तो मोह कर्म, २. 'रकार' आदि अक्षर की अपेक्षा 'रज' ऐसा ज्ञानावरण-दर्शनावरण कर्म तथा ३. उस ही 'रकार' से 'रहस्य' ऐसा अंतराय कर्म-ऐसे चार घातिया कर्मों का 'हंत' अर्थात् हनना-घातना जिनके हुआ वे अरिहंत हैं। संस्कृत की अपेक्षा 'अर्ह' ऐसा पूजा अर्थ में धातु है उससे 'अर्हत्' ऐसा रूप बनता है तब जो पूजा योग्य हो उसको 'अर्हत्' कहते हैं सो भव्य जीवों के द्वारा पूज्य है।
परमेष्ठी कहने से जो 'परम' अर्थात् उत्कृष्ट और 'इष्ट' अर्थात् पूज्य हों वे परमेष्ठी कहलाते हैं अथवा 'परम' जो उत्कृष्ट पद उसमें जो स्थित हों सो परमेष्ठी हैं ऐसे इन्द्रादिकों से पूज्य अरिहंत परमेष्ठी हैं।
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