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________________ (सूक्ति प्रकाश १. णाऊण दुविह सुत्तं वट्टइ सिवमग्ग जो भव्वो ।। गाथा २।। अर्थ-शब्द एवं अर्थ रूप द्विविध सूत्र को जानकर जो मोक्षमार्ग में प्रवर्तता है वह भव्य है। २. सुत्तम्मि जाणमाणो भवणासणं कुणदि । । ३ । अर्थ-सूत्र के जानने में प्रवीण पुरुष संसार का नाश करता है। ३. णिच्चेलपाणिपत्तं एक्को वि मोक्खमग्गो ।। १० ।। अर्थ-निश्चेल अर्थात् नग्न दिगम्बर स्वरूप और हाथ ही हैं पात्र जिसमें ऐसे खड़ा रहकर आहार करना - ऐसा एक अद्वितीय मोक्षमार्ग है। ४. तं अप्पा सद्दह तिविहेण ।। १६ ।। अर्थ-उस आत्मा की मन-वचन-काय से श्रद्धा करो । ५. बालग्गकोडिमित्तं परिगहगहणं ण होइ साहूणं ।। १७ ।। अर्थ-बाल के अग्रभाग की अणी मात्र भी परिग्रह का ग्रहण साधुओं के नहीं होता । ६. जहजायरूवसरिसो तिलतुसमित्तं ण गिहदि हत्थेसु।। १8।। अर्थ–मुनि यथाजात रूप सद श हैं अर्थात् जन्मते बालक के समान नग्न स्वरूप के धारक हैं। वे अपने हाथों में तिल - तुष मात्र भी परिग्रह ग्रहण नहीं करते I ७. णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ।। २३ ।। अर्थ-नग्नपना ही एक मोक्षमार्ग है, बाकी सब ही उन्मार्ग हैं। २-४४
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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