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गा० १६-'एएण कारणेण य.... अर्थ-इस कारण से उस आत्मा का मन-वचन-काय से श्रद्वान करो क्योंकि जिसके द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है उसको 'प्रयत्न' अर्थात् सर्व प्रकार उद्यम से जानो ।।११।। गा० १७–'बालग्गकोडिमत्तं.... अर्थ-साधुओं के बाल के अग्रभाग की अणी बराबर भी परिग्रह का ग्रहण नहीं होता । वे एक ही स्थान में अन्य का दिया प्रासुक अन्न अपने कर रूपी पात्र में ग्रहण करते हैं ।।१२।। गा० १8-'जहजायरूवसरिसो... अर्थ-मुनि यथाजात रूप सारिखी नग्न मुद्रा के धारक हैं, वे अपने हाथों में तिल के तुष मात्र भी परिग्रह ग्रहण नहीं करते और यदि कुछ थोड़ा बहुत ले लें तो उससे निगोद चले जाते हैं।।१३।। 'गा० २३-'ण वि सिज्झइ.... अर्थ-जिनशासन में कहा है कि वस्त्र धारण करने वाला यदि तीर्थंकर भी हो तो भी सीझता नहीं है अर्थात् मोक्ष को नहीं पाता है। नग्नपना ही एक मोक्षमार्ग है, बाकी सब ही उन्मार्ग हैं ।।१४ ।। गा० २७–'गाहेण अप्पगाहा....' अर्थ-जैसे कोई मनुष्य समुद्र में से अपना वस्त्र धोने के लिए वस्त्र धोने मात्र जल ग्रहण करता है वैसे मुनि ग्रहण करने योग्य आहारादि में से थोड़ा ग्रहण करते हैं। जिन मुनियों की इच्छा निवत्त हो गई है उनके सब दुःख निव त्त हो गए हैं।।१५।।
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