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आचार्य कुन्दकुन्द
अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
यहाँ आशंका है कि 'यदि परिग्रह कुछ भी नहीं है तो आहार कैसे करते हैं ?' उस पर कहते हैं कि 'आहार ऐसे करते हैं- 'पाणिपात्र' अर्थात् करपात्र, अपने हाथ ही में भोजन करते हैं और वह भी अन्य का दिया हुआ प्रासुक अन्न मात्र लेते हैं सो भी एक स्थान पर ही लेते हैं, बार-बार नहीं लेते हैं और अन्य-अन्य स्थान में नहीं लेते हैं ।'
भावार्थ
जो मुनि आहार ही पर का दिया हुआ, प्रासुक, योग्य अन्नमात्र, निर्दोष, एक बार दिन में अपने हाथ में लेते हैं तो अन्य परिग्रह किसलिये ग्रहण करेंगे अर्थात् नहीं करेंगे। जिनसूत्र में मुनि ऐसे कहे हैं । ।१७।।
उत्थानिका
आगे कोई कहता है कि 'यदि अल्प परिग्रह ग्रहण करें तो उसमें दोष क्या है ?' उसको दोष दिखाते हैं :
जहजायरूवसरिसो तिलतुसमित्तं ण गिहदि हत्थेसु ।
जइ लेइ अप्पबहुअं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदम् ।। १8 ।। यथाजात सद श रूप तिल - तुष, मात्र कर में ना ग्रहें ।
यदि ग्रहें अल्प-बहुत तो उससे, गमन होय निगोद में ।। १8 ।।
अर्थ
मुनि हैं सो यथाजात रूप सरीखे हैं अर्थात् जैसा जन्मता बालक नग्न होता है वैसे नग्न दिगम्बर मुद्रा के धारक हैं सो अपने हाथ में तिल के तुष मात्र भी कुछ ग्रहण नहीं करते हैं और यदि कुछ थोड़ा-बहुत ग्रहण करें तो उससे निगोद चले जाते हैं।
भावार्थ
मुनि यथाजात रूप निर्ग्रथ दिगम्बर कहे गये हैं सो ऐसे होकर भी कुछ परिग्रह
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