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________________ अष्ट पाहुड़storate स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द .... आज MANANAMA Dool 樂樂崇崇崇明崇崇明崇業坊業業藥業業%崇勇業業崇 एएण कारणेण य तं अप्पा सद्दहेह तिविहेण। जेण य लहेह मोक्खं तं जाणिज्जह पयत्तेण ।। १६ ।। इन कारणों से करो श्रद्धा, त्रिविधविध निज आत्म की। जिससे हैं पाते मोक्ष उसको, जानो सर्व प्रयत्न से ।।१६।। अर्थ पहिले कहा था कि 'जो आत्मा को इष्ट नहीं करता है उसके सिद्धि नहीं है इस ही कारण से हे भव्य जीवों! तुम उस आत्मा को श्रद्धो-उसका श्रद्धान करो, मन-वचन-काय से स्वरूप में रुचि करो, जिस कारण से मोक्ष को पाओ और जिससे मोक्ष पाया जाता है उसको 'प्रयत्न' अर्थात् सब प्रकार के उद्यम से जानो। भावार्थ जिससे मोक्ष पाया जाता है उस ही को जानना एवं श्रद्धान करना-यह प्रधान उपदेश है, अन्य आडम्बर से क्या प्रयोजन-ऐसा जानना ।।१६ ।। 崇养崇崇崇崇崇崇崇崇勇攀藤勇攀事業樂業禁帶男 आगे जो जिनसूत्र को जानने वाले मुनि हैं उनका स्वरूप फिर द ढ़ करने को कहते हैं :बालग्गकोडिमित्तं परिगहगहणं ण होइ साहूणं। भुजेइ पाणिपत्ते दिण्णण्णं एक्कठाणम्मि।। १७।। बालाग्र की अणि मात्र भी, परिग्रहग्रहण नहिं साधु के। करपात्र में परदत्त अन्न वे, ग्रहें इक स्थान में ||१७ ।। अर्थ बाल के अग्रभाग की 'कोटि' अर्थात अणी उस मात्र भी परिग्रह का ग्रहण साधुओं के नहीं होता है। 崇明崇明崇明崇明崇崇 崇 明崇寨崇明崇明崇明崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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