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________________ अष्ट पाहुड़storate स्वामी विरचित Namastee-THEME आचार्य कुन्दकुन्द HDod Fact R भावार्थ उत्कष्ट श्रावक को 'इच्छाकार' करते हैं सो जो 'इच्छाकार' का जो प्रधान अर्थ है उसको जानता है और सूत्र के अनुसार सम्यक्त्व सहित आरम्भादि को छोड़कर उत्क ष्ट श्रावक होता है वह परलोक में स्वर्ग का सुख पाता है।।१४।। Cउत्थानिका 0 樂樂崇崇崇崇明崇崇崇勇兼功兼業助兼崇勇崇% 業坊業業乐業 आगे कहते हैं कि 'जो 'इच्छाकार' के प्रधान अर्थ को नहीं जानता है और अन्य धर्म का आचरण करता है वह सिद्धि को नहीं पाता है' :अह पुण अप्पा णिच्छदि धम्माई करेइ णिरवसेसाई। तह वि ण पावदि सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो।। १५ ।। नहिं चाहता निज आतमा, अवशेष धर्म करे भले। तो भी ना पाता सिद्धि, संसारस्थ ही है कहा गया।।१५।। अर्थ 'अथ पुन': ऐसे शब्द का यह अर्थ है कि 'पहिली गाथा में कहा था कि जो 'इच्छाकार' के प्रधान अर्थ को जानता है वह आचरण करके स्वर्ग का सुख पाता है, वही अब फिर कहते हैं कि 'इच्छाकार' का प्रधान अर्थ आत्मा को चाहना है अर्थात् अपने स्वरूप में रुचि करना है सो इसको जो इष्ट नहीं करता है और अन्य धर्म के समस्त आचरण करता है तो भी 'सिद्धि' अर्थात् मोक्ष को नहीं पाता है और उसको संसार में ही स्थित रहने वाला कहा है।' भावार्थ 'इच्छाकार' का प्रधान अर्थ आत्मा का चाहना है सो जिसके अपने स्वरूप की रुचि रूप सम्यक्त्व नहीं है उसके सब मुनि-श्रावक की आचरण रूप प्रवत्ति मोक्ष का कारण नहीं है।।१५।। 崇帶养添馬艦帶男藥先崇勇崇崇勇攀事業事業事業樂業樂業 Cउत्थानिका। आगे इस ही अर्थ को द ढ करके उपदेश करते हैं :崇明崇崇崇明崇明藥明黨崇明崇明藥%崇明崇明崇明崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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