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________________ *糕糕糕糕糕糕糕蛋糕糕糕蛋糕糕 आचार्य कुन्दकुन्द अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित रखें तो जानना कि इनके जिनसूत्र की श्रद्धा नहीं है, मिथ्याद ष्टि हैं और मिथ्यात्व का फल निगोद ही है। कदाचित् कुछ तपश्चरणादि करें और उससे शुभ कर्म बाँधकर स्वर्गादि पावें तो भी फिर एकेन्द्रिय होकर संसार ही में भ्रमण करते हैं। यहाँ प्रश्न-मुनि के शरीर है, आहार करते हैं, कमंडलु, पीछी व पुस्तक रखते हैं और यहाँ तिल के तुष मात्र भी रखना नहीं कहा सो कैसे ? उसका समाधान-यदि मिथ्यात्व सहित रागभाव से अपनाकर अपने विषय-कषाय पुष्ट करने के लिए रखे तो उसको परिग्रह कहते हैं, उस निमित्त कुछ थोड़ा-बहुत रखने का निषेध किया है परन्तु केवल संयम साधने के निमित्त का तो सर्वथा निषेध है नहीं। शरीर है सो आयु पर्यन्त छोड़ने पर छूटता नहीं, इसका तो ममत्व ही छूटता है और जब तक शरीर है तब तक आहार न करें तो सामर्थ्य हीन हो जायें तब संयम नहीं सधे इसलिए शरीर को खड़ा रखकर कुछ योग्य आहार विधिपूर्वक शरीर से राग रहित होते हुए लेकर संयम साधते हैं। तथा कंमडलु शौच का उपकरण है, यदि नहीं रखें तो मल-मूत्र की अशुचिता से पंच परमेष्ठी की भक्ति - वंदना कैसे करें और लोकनिद्य हों। पीछी दया का उपकरण है, यदि नहीं रखें तो जीवों सहित भूमि आदि की प्रतिलेखना किससे करें ! पुस्तक सो ज्ञान का उपकरण है, यदि नहीं रखें तो पठन-पाठन कैसे हो ! तथा इन उपकरणों का रखना भी ममत्वपूर्वक नहीं है, इनसे रागभाव नहीं है। और आहार-विहार तथा पठन-पाठन की क्रियायुक्त जब तक रहें तब तक केवलज्ञान भी उत्पन्न नहीं होता है, इन सब क्रियाओं को छोड़कर शरीर का भी सर्वथा ममत्व छोड़ ध्यान अवस्था लेकर तिष्ठें, अपने स्वरूप में लीन हों तब परम निर्ग्रथ अवस्था होती है, तब श्रेणी को प्राप्त होकर मुनिराज के केवलज्ञान उत्पन्न होता है, अन्य क्रिया सहित हों तब तक केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता है-ऐसा निर्ग्रथपना जिनसूत्र में मोक्षमार्ग कहा है। श्वेताम्बर कहते हैं कि 'भवस्थिति पूरी होने पर सब अवस्थाओं में केवलज्ञान उत्पन्न होता है सो यह कहना मिथ्या है, जिनसूत्र का यह वचन नहीं है, उन श्वेताम्बरों ने कल्पित सूत्र बनाए हैं उनमें लिखा होगा' । फिर यहाँ श्वेताम्बर कहते हैं कि 'जो तुमने कहा वह तो उत्सर्ग मार्ग है परन्तु अपवाद मार्ग में वस्त्रादि उपकरण रखना कहा है, जैसे तुमने धर्मोपकरण कहे 【卐卐糕卐業業 २-३० 卐卐 卐業業業業業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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