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गाथा - ७८
नहीं जानते, नहीं मानते, वह तो उसका जाननेवाले रहते हैं, उसका नाम सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है। कुछ समझ में आया ? इस प्रकार राग-द्वेष का त्याग करके ज्ञानदर्शन-गुणवाले आत्मा को प्राप्त करो । अन्तिम सारांश (किया) । अन्तिम लाईन है। इस प्रकार राग-द्वेष का त्याग करके, ज्ञान-दर्शन गुणवाले आत्मा को प्राप्त कर । पाठ में ऐसा है न कि दो दोष को छोड़े और दो (गुण को ) ग्रहण करे ।
'समयसार' का दृष्टान्त दिया है। महान ज्ञान के लक्षण धारी शुद्ध निश्चयनय के द्वारा...... निश्चय अर्थात् सत्य दृष्टि द्वारा जो सदा ही अपने आत्मा के एक स्वभाव का अनुभव करते हैं... धर्मी जीव को राग हो, विकल्प हो, उससे रहित मेरी चीज एक स्वभावी, एक स्वभावी पूर्ण आनन्द, एक स्वभावी है - ऐसी दृष्टि करके आत्मा का अनुभव करते हैं । वे रागादिभावों से छूटकर बन्धरहित शुद्ध आत्मा को देख लेते हैं । रागभावों से छूटकर... विधुरं... विधुरं है न ? विधुरं, बन्धविधुरं वह बन्ध से विधुर हो जाता है। यह ७७ (गाथा पूरी ) हुई ।
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तीन को छोड़कर तीन गुण विचारे
तिहिं रहिउ तिहिं गुण सहिउ जो अप्पाणि वसेइ ।
सो साय सुह भायणु वि जिणवरूएम भणेइ ॥ ७८ ॥
त्रय तजकर त्रय गुण गहे, निज में करे निवास । शाश्वत सुख के पात्र वे, जिनवर करे प्रकाश ॥
अन्वयार्थ - ( तिहिं रहयउ ) तीन राग-द्वेष - मोह से रहित होकर (तिहिं गुण सहिउ अप्पाणि जो वसेइ ) तीन गुण सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र सहित आत्मा में जो निवास है ( सो सासय- सुह - भायणु वि) सो अविनाशी सुख का भाजन होता है (जिणवरु एम भणेइ ) जिनेन्द्र ऐसा कहते हैं ।
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अब, ७८, तीन को छोड़कर तीन गुण विचारे ।