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गाथा-७७
(गहने) बनाये? दागिने को क्या कहते हैं ? जेवर। जेवर बनाये? सोनी को कुछ दे तो वह भोगे । क्या भोगे? पैसे को – धूल को भोगे? धूल में भी नहीं भोगता। मूढ़ मानता है। अपनी मौजूदगी में, अपनी सत्ता की भूमिका में करना और भोगना है। पर की सत्ता की भूमिका में करना-भोगना आत्मा को नहीं है।
मुमुक्षु : 'कुन्दकुन्दाचार्य' कहते हैं, भोगता है और तन्मय नहीं होता?
उत्तर : इसका अर्थ क्या हुआ? भोगता है और तन्मय नहीं होता – इसका अर्थ यह हुआ कि पर में एकमेक नहीं होता और पर को भोगता है – ऐसा ज्ञान कराने के लिये निमित्त कहा जाता है। ओ...हो...! अद्भुत परन्तु पण्डितों ने भी पढ़-पढ़कर भारी... कल ऐसा आया है। सोनी होता है न? सोनी - स्वर्णकार, वह जेवर बनाता है परन्तु एकमेक नहीं होता, जेवररूप नहीं होता परन्तु किसी पररूप से किस प्रकार होगा? और पररूप हुए बिना पर का कर्ता किस प्रकार होगा? और पररूप हुए बिना पर का भोगता भी किस प्रकार होगा? और पररूप तो कभी होता नहीं। आहा...हा...! लिखा है परन्तु उसका अर्थ समझना चाहिए न ! लिखा क्या है ? घी की शीशी लिखा हो, घी की वरण्डी नहीं कहते? घी की वरण्डी। घी की वरण्डी है? घी का बर्तन होता है ? बर्तन तो पीतल, मिट्टी का होता है; घी तो उसमें रहता है। वह रहता है - ऐसा कहना वह भी व्यवहार है। घी, घी में रहता है, बर्तन, बर्तन में रहता है। घी का बर्तन होता है ? बोलने में आता है। बोलने में आया तो क्या हुआ? 'कुन्दकुन्दाचार्यदेव' कहते हैं, कुम्हार घड़ा बनाता है – ऐसा हम तो नहीं देखते। हम तो देखते हैं कि मिट्टी घट को बनाती है – ऐसा 'कुन्दकुन्दाचार्यदेव' कहते हैं।
मुमुक्षु : वे तो उपादान से कहते हैं ?
उत्तर : परन्तु उपादान का अर्थ क्या? पदार्थ अपने से अपने परिणाम करता है; पर का परिणाम कभी नहीं करता। आहा... हा....!
यहाँ कहते हैं, भगवान आत्मा पूर्ण आनन्दमय है... सम्यग्दर्शन, ज्ञान में अपने आनन्द को भोगनेवाला आत्मा है। अज्ञानमय राग-द्वेष को भोगनेवाला है; पर को तो भोगनेवाला है नहीं। यह शरीर मिट्टी-जड़ है। यह रंग, गन्ध, रस, स्पर्श, मिट्टी-धूल है। दाल-भात, सब्जी, नमकीन, मिर्ची, मरी, आत्मा भोग सकता है? आत्मा चरपरा हो जाता है?