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योगसार प्रवचन (भाग-२)
णिव्वाणु लहेइ' तो वह शीघ्र ही निर्वाण को पाता है... अल्प काल में उस जीव की मुक्त होगी - ऐसा जिनेन्द्रस्वामी ( कहते हैं) । जिणु साामिउ कहा है न ? इसलिए जिनेन्द्र लिया। स्वामी - जिनस्वामी ऐसा कहते हैं । जिनस्वामी अर्थात् जिनेन्द्र । जिन के स्वामी अर्थात् जिनेन्द्र आहा... हा... ! ' जिणु सामिउ एमई भाइ' जिन के इन्द्र ऐसे जिनेन्द्र प्रभु यह कहते हैं, जिनेन्द्र प्रभु ऐसा कहते हैं । भगवान आत्मा में, वह जाननेदेखनेवाला दो धारक एक तत्त्व है, ऐसे आत्मा में बसे तो अल्प काल में मुक्ति होती है - ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं । यह क्रिया कैसी ? समझ में आया ?
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बन्ध का मूल कारण राग-द्वेष है, उनका त्याग करना । राग-द्वेष का खण्ड। भगवान वीतरागस्वरूप है, उसमें खण्ड होना, यह ठीक-अठीक, यह राग-द्वेष है। ठीक-अठीकपना उसके स्वभाव में नहीं है। कोई अनुकूल चीज ठीक और प्रतिकूल अठीक - यह वस्तु में ही नहीं है । इसमें, (आत्मा में) नहीं है और उसमें भी नहीं है (अर्थात्) ज्ञात होने योग्य चीज में भी कोई ठीक और अठीक (ऐसे) दो भाग ही नहीं हैं और आत्मा में ऐसा भंग नहीं है, वह तो वीतरागस्वरूप है। यह ठीक और अठीकऐसे विकल्प उत्पन्न हों, वे वस्तु में नहीं है। समझ में आया ? आहा...हा... ! निरोग शरीर होवे तो धर्म होता है, लो! यह कहते हैं ऐसा स्वरूप में है ही नहीं । सुन न ! अब वह तो परज्ञेय है, वह तो जानने योग्य ज्ञेय है । उसमें ऐसा होवे तो ऐसा हो, वहाँ हो तो यहाँ हो ऐसा यहाँ कहाँ था ? आहा... हा.... ! खाने-पीने के साधन हो, सुविधायें हों, स्त्री-पुत्र अच्छे हों, सेवा - वेबा करे, तो कुछ वैयावृत्त्य में सेवा टहल में अन्तर पड़े। पड़ता होगा या नहीं ? स्त्री अच्छी हो, पुत्र हो, सब इसे चाहते हों, ठण्डे समय आना चाहिए गर्म समय आना चाहिए, सबेरे में आना चाहिए, शाम को (आना चाहिए)। यह सब घर के लोग जानें- ऐसी सब सुविधा, व्यवस्था समान हो तो इसे स्फूर्ति रहती है या नहीं ?
मुमुक्षु: शरीर के साथ आत्मा का क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर : यही कहते हैं कि बाहर में ठीक-अठीक ऐसा किसी चीज में नहीं है, इसलिए राग-द्वेष छोड़ दे। तेरे स्वभाव में नहीं है। ठीक-अठीक मानना - ऐसा तेरा स्वरूप