________________
योगसार प्रवचन (भाग-२)
भले ही आवे (परन्तु उसका) उत्साह करने योग्य नहीं है। ऐसा आये बिना रहता नहीं। सर्वज्ञपद पूर्ण एकदम नहीं होता, उसे समय लगता है। सर्वज्ञदशा प्रगट करने को असंख्य समय लगते हैं तो कहते हैं, ऐसे विचार होते हैं ऐसा व्यवहार होता है। (इस प्रकार) चार स्वरूप है।
अथवा यह सुख-सत्ता चैतन्य बोध चार भाव प्राणों का धारी है। चार भावप्राण लिये हैं । सुख-आनन्द, अस्तिरूप रहा हुआ आनन्द और अस्तिरूप चैतन्य और बोध - ज्ञान इन चार भावप्राणों का धारी हूँ। मैं यह आत्मभगवान राग-द्वेष और शरीर व वाणी, कर्म का धारक, यह तो उसमें गन्ध में नहीं है। उसके व्यवहार में तो धारक उसका वह व्यवहार भी नहीं है। आहा...हा...! भगवान यह चैतन्यबोध आनन्द और सत्ता ऐसे प्राण का धारक है। वह एक ऐसे प्राण का धारक है, उसे भी व्यवहार और विकल्प कहते हैं। समझ में आया? ओ...हो...!
अथवा यह आत्मा अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल भाव का स्वामी है।... चार लेना है न! भगवान आत्मा...! चार-चार की बात चलती है। स्वयं प्रभु, अपना द्रव्य अर्थात् गुणपर्याय का पिण्ड; क्षेत्र अर्थात् उसकी अवगाहना-चौड़ाई; काल अर्थात् अवस्था; और भाव अर्थात् शक्ति - इन चार का यह स्वामी है। अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के अतिरिक्त दूसरे किसी वस्तु के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव का स्वामी यह नहीं है, मालिक नहीं है। समझ में आया?
शान्तरस का धारक प्रभ, शान्त... शान्त... अकेला उपशमरस, उसका धारक है - ऐसा विचारना यह भी भेद है। समझ में आया? भगवान तो स्वरूप से अखण्ड एकरूप है, उसकी रुचि, ज्ञान और स्थिरता - यह साक्षात् मोक्ष का मार्ग है परन्तु इसमें जब नहीं रह सके, तब ऐसे विकल्प होते हैं। ऐसे भेद होते हैं कि मैं अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव का स्वामी हूँ; शरीर का, राग का (स्वामी नहीं) हूँ। मेरी निर्मल पर्याय का स्वामी, हाँ! राग का स्वामी नहीं, शरीर का, वाणी का, कर्म का, स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब, देश, राष्ट्र, धूल, यह राजा, नृपति... नरपति ऐसा कहते हैं न... नर-मनुष्य का पति-वति, धर्मी नहीं मानता। मैं कोई नर का पति नहीं हूँ, मैं तो अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव का पति हूँ। आहा...हा...!