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________________ ६४ गाथा - ७६ उसका लक्ष्य करके स्थिर होना, उसमें नहीं रह सके तो यह आत्मा अनन्त गुणवाला है और अनन्त गुण है तो उनकी पर्याय भी अनन्त गुणवाली है, पर्याय भी अनन्त है - ऐसे उसे एक को दो प्रकार से विचार करना । आहा... हा... ! समझ में आया? यह भी व्यवहार आया। समझ में आया ? एकड़े एक और बिगड़े दो । दो विचार आये, वह विकल्प आया (तो) बिगाड़ खड़ा हुआ । यह स्थिर न हो सके तो ऐसे विचार में रहना इतनी बात वहाँ ली है । आहा....हा... ! यहाँ तो मूल बात है न! यह भेद पड़ा, वह वास्तव में योगसार नहीं है । उसका व्यवहार (है)। योगसार तो अखण्ड ज्ञायकमूर्ति प्रभु में अन्तर में ढलकर एकाकार होना वही उसकी वस्तु है, फिर योगसार की दशा, योगरूप से जुड़ने में काम न करे तो उसी उसी के यह गुण और यह पर्याय का माहात्म्य करता हुआ अन्तर्मुख समाने का प्रयत्न करे । समझ में आया? यह अकेली मक्खन की बात है । दूसरे कहते हैं, इसमें निश्चय में व्यवहार की बात ही नहीं करते परन्तु यह व्यवहार का बात क्या करे ? सुन न, दूसरा व्यवहार बीच में आवे, भले ही उस समय आवे परन्तु यह व्यवहार, इसके समीप का व्यवहार तो यह है, समझ में आया ? आहा...हा...! अथवा यह ज्ञान-दर्शनस्वरूप है... भगवान आत्मा वस्तु, उसके अनन्त गुण, उसकी पर्याय यह भेद पड़ा, यह व्यवहार हुआ अथवा भगवान आत्मा दर्शन -ज्ञानस्वरूप है । वह परमात्मा स्वयं एक स्वरूप में दर्शन - ज्ञानस्वरूप है - ऐसे दो गुणों से विचारना, वह भी एक व्यवहारनय का विकल्प है। समझ में आया ? ऐसा अद्भुत धर्म है, भाई, वीतराग का! लोगों को ऐसा लगता है कि यह निश्चयवाले... मुनि को कहते हैं, यह क्या लगा रखा है तुमने ? व्यवहार डाला तो ऐसा व्यवहार डाला ? वह व्यवहार इसमें क्यों नहीं रखा ? यह बात तो पहले हो गयी, जिस किसी को स्वरूप की दृष्टि और स्थिरता हुई, उसे अन्तर पञ्च महाव्रत का विकल्प निमित्त होता है, और फिर स्वरूप का साधन उग्ररूप से अन्दर करता है - यह बात पहले कह गये हैं। समझ में आया ? यहाँ तो अन्तर में भगवान आत्मा का ही घोलन करने में व्यवहार खड़ा होता है, उसकी बात करते हैं ।
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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