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गाथा-६९
निर्वाण पा सकता है। संसार के समस्त परिवारी नरक में जायें, चार गति में जाये, भले जाओ, आत्मा - अपना शुद्धस्वरूप चैतन्यमूर्ति है। समझ में आया? अपना आत्मा शुद्ध
चैतन्य आनन्दकन्द है – ऐसी उसकी रुचि / दृष्टि करके, आत्मा का ज्ञान करके आत्मा में ही लीन होना. वही रत्नत्रय एक ही मोक्ष का कारण है। वह रत्नत्रय स्वयं से होता है: किसी दूसरे से नहीं होता। अपने आत्मा के आश्रय से होता है, उसमें किसी की सहायता नहीं है; भगवान – देव-गुरु-शास्त्र भी उसमें मदद नहीं करते। समझ में आया?
___ एक व्यक्ति भगवान के मन्दिर में माला जपता था। 'सनोसरा' वाले अमरचन्दभाई थेन? अमरचन्दभाई थे, उमराला रहते थे न? अमरचन्दभाई विसाश्रीमाली, वे वहाँ मन्दिर में माला जपते थे, वहाँ मर गये। इसलिए ऐसा कि ओ...हो... ! मन्दिर में मरे । मन्दिर में (मरे) तो क्या हुआ? माला जपते हों तो शुभभाव है, उससे पुण्य है। समझ में आया? वह धर्म-वर्म है नहीं। लोग कहते हैं ओ...हो...! बहुत भाग्यशाली हैं ! ऊपर से मुर्दा उतारा। वहाँ भगवान के मुख्य मन्दिर में मर गये थे। माला जपते थे, वहीं देह छूट गयी। यह 'सनोसरा' के थे न? अमरचन्दभाई थे, विसाश्रीमाली, मन्दिरमार्गी । वहाँ रहते और मकान यहाँ था। हमारे उमराला में मकान बनाया. यहाँ आते थे। उन्हें लेकर 'सनोसरा' गये थे. ऊपर से मुर्दा उतारा तो लोग कहते हैं, ओ...हो... ! सिद्धगिरि में रखे। सिद्धगिरि में (मरे परन्तु) नरक में जाये, उसमें क्या है ? सिद्धगिरि में मरे और नरक में जाये। धीरूभाई! और साधारण शुभभाव होवे तो पुण्य बाँधे, उसमें कहीं कल्याण हो जाये, जन्म-मरण का अन्त आवे - (ऐसा नहीं है।) भगवान के समक्ष बैठा हो तो भी जैसा राग करे वैसा बन्ध पड़ता है। समझ में आया? पुण्य-पाप के भाव से मेरी चीज भिन्न है। मेरी चीज ही भिन्न है - ऐसे अपने आत्मा की श्रद्धा-ज्ञान करे तो उसे रत्नत्रय प्रगट होने पर उसकी मुक्ति होती है, दूसरे किसी उपाय से मुक्ति नहीं है।
प्रत्येक जीव का द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव दूसरे जीव से निराला है। ठीक है? क्या कहा? प्रत्येक जीव-प्रत्येक जीव, उसका द्रव्य भिन्न, क्षेत्र भिन्न, काल भिन्न और भाव भिन्न है। प्रत्येक जीव परम शुद्ध है। लो, उतारा है सही, कहीं दूसरा उतारा होगा, ठीक है। उसमें उतारा है, सत्तर में उतारा है - द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव उतारा है। प्रत्येक जीव