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गाथा-७५
है, तू जड़ को कर सकता है ? प्रिय स्त्री मरती हो, स्वयं की चालीस वर्ष की उम्र (होवे)
और उसकी पैतीस वर्ष की (होवे) । हाय... हाय...! अब क्या करना? दूसरी (पत्नी) होगी नहीं, यह जवान लड़के विवाह नहीं करने देंगे, जिलाने का बहुत भाव हो, मर जाती है। तेरा भाव वहाँ क्या कारगत होगा? उसकी दशा, उसके शरीर की जिस प्रकार से होनी है, उसे तू क्या कर सकेगा? समझ में आया? परन्तु इसको अभिमान (ऐसा कि) दूसरे का कर दें, ऐसा कर दें, वैसा कर दें। अभी तो बहुत होता है न? सुधार कर दें। धूल भी नहीं कर पाते, सुन न!
यहाँ तो कहते हैं कि जो वीतराग परमेश्वर पूर्णानन्द के नाथ, जिन्हें प्रगट दशा हुई वह मैं हूँ, वह मैं - ऐसा ही, उतना ही, उतना ही मैं वस्तुपने हूँ - ऐसा दृष्टि में स्वीकार आये बिना पूर्ण तत्त्व का सच्चा स्वीकार नहीं हो सकता। वही मैं हूँ... जोर (दिया) है। वही मैं हूँ। वही, वही हूँ। वही हूँ ऐसी शक्ति जिसे प्रगट हुई ऐसा मैं हूँ। समझ में आया? पीपल का प्रत्येक दाना समान है। शक्ति से, सत्त्व से, स्वभाव से पूर्ण अन्दर में समान है। इसी तरह प्रत्येक आत्मा शक्ति से, स्वभाव से समान है। दशा में अन्तर है तो दशा का अन्तर टालकर अन्तर के अवलम्बन द्वारा पूर्ण दशा प्रगट की, वही मैं हूँ - मैं ऐसा होने योग्य हूँ। इसका अर्थ ही है कि वह मैं हूँ। टोडरमल' ने कहा न? शक्ति से होने योग्य हूँ, परन्तु यहाँ तो कहते है कि मैं वह हूँ, वह हूँ, यहाँ अभी हूँ।
__ शुद्ध, शुद्ध परमानन्द की मूर्ति, जैसे बर्फ की शिला शीतल होती है, बर्फ की शीतल शिला हो उस बर्फ के किसी कोने खाँचरे, मध्य में कभी गर्मी नहीं होती। इसी तरह भगवान अविकारी चैतन्य का पिण्ड है, उसमें कहीं कषाय राग-द्वेष नहीं है - ऐसी वीतरागी शान्तरस की शिला आत्मा है। भगवान जाने कैसा होगा? समझ में आया? शान्त... शान्त... शान्त... पुण्य-पाप के शुभ-अशुभ के विकल्प वह अशान्ति है, दु:ख है। उसके मूल स्वरूप में वे नहीं हैं, शान्त... शान्ति की बर्फ की शिला जैसे पड़ी हो, वैसे ही भगवान देह से भिन्न अरूपी चिद्घन, अनन्त शान्ति के रस के कन्द से व्यापक प्रभु सम्पूर्ण भगवान आत्मा है। आहा...हा... ! समझ में आया?
'एहुउ णिभंतु भाउ' ऐसी ही शङ्कारहित भावना करो। उसका अर्थ है । 'एहुउ