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गाथा-७४
धर्म बिना कहाँ सुखी था? धूल में । सुख कहाँ से आया? यह बात तो पहले की है कि धर्म के बिना सुख नहीं है। धर्म / सुख वह आत्मा में है। आनन्दकन्द प्रभु सच्चिदानन्द सत् शाश्वत् ज्ञाता और आनन्द का भण्डार परिपूर्ण है, पीपल के दाने की शक्ति के दृष्टान्त से उसमें अन्तरदृष्टि देने पर सुख होवे ऐसा है। वरना धूल में कहीं सुख नहीं है। सेठिया और राजा, भिखारी, भिखारी सब दु:खी है। करोड़पति, अरबोंपति जड़ के पति हैं, चैतन्य के पति नहीं। मलूकचन्दभाई ? जड़ का पति? कल्पना से मानता है, (धूल में कहीं सुख नहीं है।) उसके पास यहाँ (जड़) चीज कब आती है? आहा...हा...!
भगवान सत्स्वरूप कायम असली वस्तु, जिसकी मींगी अकेला आनन्द व ज्ञान और शुद्धता की परिपूर्णता है, कहते हैं कि ऐसी दृष्टि से देखने पर उसे यह नारकी और मनुष्य, देव और राग और द्वेष, इस दृष्टि से देखने पर उसमें नहीं है और वह दृष्टि करना वही आत्मा को हितकर है। समझ में आया?
पर्याय की दृष्टि से... अवस्था दृष्टि से देखें तो दिखता है। वर्तमानदशा में राग है परन्तु वह दृष्टि तो जानने योग्य है। वह कहीं आदरणीय नहीं है। आदर करने योग्य तो अन्दर त्रिकाल (स्वरूप है)।
विकल्प होने पर भी मेरे स्वरूप में नहीं है ऐसी पूर्णानन्द की दृष्टि का आश्रय करना, वह सुखी होने मार्ग है। कहो, समझ में आया?
वास्तव में पर का ग्रहण और स्वगुण के त्याग से रहित है। अन्तिम (लाइन) है। भगवान आत्मा, राग का भी जिसे स्वभाव में ग्रहण नहीं है और अपने शुद्ध ध्रुव गुण को कभी छोड़ा नहीं है। शुद्ध ध्रुव गुण जो शक्ति, पीपल ने चौंसठ पहरी चरपराहट और हरा रंग कभी छोड़ा नहीं है और उस शक्ति ने कभी काला रंग ग्रहण किया नहीं है और जो बाहर की कड़करायी होती है न पीपल के ऊपर? उसे अन्दर के स्वभाव में उसने ग्रहण नहीं किया है। ऐसे ही भगवान आत्मा, उसके ज्ञान आनन्द स्वभाव में, एकाकार में उसने पुण्य-पाप के विकार और अल्पज्ञता अन्दर में ग्रहण नहीं की है और अपना ध्रुव शाश्वत् स्वभाव है, वह कभी उसने छोड़ा नहीं है। समझ में आया? यह किस प्रकार का धर्म है?